वैज्ञानिक प्रगति के दौर में समाज
- प्रो. एनएल मिश्र
अपने आदिकाल के समय से ही मानव नित नए प्रयोगों के साथ आगे बढ़ रहा है। कभी किसी विचारधारा को लेकर आगे बढ़ा तो कभी शून्यता की स्थिति में भी प्रयोग किया। लेकिन उसकी विकास की यात्रा अनवरत चलती रही।किधर जाना चाहिए ऐसे सवाल तो बाद में उठने शुरू हुए पहले तो वह अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की किसी तरह से पूर्ति के प्रयास में लगा रहा। धीरे-धीरे वह यंत्रों के विकास की तरफ बढ़ा। संभव है उनमें मानवीय चेतना का उतना विस्तार न रहा हो किंतु यात्रा तो वहीं से शुरू मानी जाएगीन उसकी विकास की यात्रा अनवरत चलती रही। किधर जाना चाहिए ऐसे सवाल तो बाद में उठने शुरू हुए पहले तो वह अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की किसी तरह से पूर्ति के प्रयास में लगा रहा। धीरे-धीरे वह यंत्रों के विकास की तरफ बढ़ा। संभव है उनमें मानवीय चेतना का उतना विस्तार न रहा हो किंतु यात्रा तो वहीं से शुरू मानी जाएगी। कालांतर में विकास ने रफ्तार पकड़ी और वह समाज दो वर्गों में विभाजित हुआ दिखने लगा। एक श्रमिक के रूप में तो दूसरा प्रबंधक के रूप में।
विकास की गति और प्रकृति को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे ही चलना होगा औरशुरुआत वहीं से करनी होगी जहां से उत्पादन पद्धति में क्रमशः प्रगति हुई। यहां मुख्य विषय यह है कि हम किधर जा रहे हैं या हमें आगे जाने के लिए कौन सा रास्ता दिखाया जा रहा है। वर्तमान भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ सनातन का शोर है तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक समाज अंतर्द्वंद्व में उलझा है। संप्रदाय तो बहुत पीछे हैं। सनातन के वसुधैव कुटुंबकम् का मूल्य अंतर्विरोधों से घिर गया है।ऐसे हालात में वर्तमान विषय पर चिंतन अपरिहार्य सा लगता है। मैने ऊपर जिक्र किया है उत्पादन पद्धति का।इसमें मुख्य रूप से तीन चरण आते हैं।ये हैं..वर्गपूर्व समाज, वर्ग समाज और भावी वर्ग रहित समाज।
वर्गपूर्व समाज को आदिम समाज भी कहा जाता है और इस समाज में उत्पादन स्तर एकदम निम्न था। उसकी निम्नता का अंदाजा इसी से किया जा सकता है कि समूचे समुदाय द्वारा किए गए अधिकतम प्रयास का अधिकतम भाग न्यूनतम स्तर को बनाए रखने में ही समाप्त हो जाता था।सभी श्रम करते थे, कोई किसी पर आश्रित नहीं था। अधिमूल्य के अभाव के कारण आर्थिक विषमता का प्रश्न ही नहीं था तब भी व्यक्तिगत गुणों से अर्जित प्रतिष्ठा दिखती थी इस कारण सामाजिक विषमता भी नहीं थी।
धीरे-धीरे मानवीय चेतना के क्षेत्र में विस्तार होने लगा और इस विस्तार का परिणाम यह हुआ कि उत्पादन तकनीक अस्तित्व में आने लगी, उत्पादकता में वृद्धि होने लगी तथा आवश्यकताओं के अतिरिक्त भी उत्पादन होने लगा।कुशलता के नए क्षितिज खुलने शुरू हो गए। कुशलता प्राप्त समूहों को अन्य समूह खाद्य पदार्थों की पूर्ति करता था। चूंकि वह नई नई तकनीकों की खोज कर रहा था, इसलिए इनका समुदाय भी एक विशिष्ट समूह के रूप में उभरा और आगे चलकर यही समूह प्रबंधक, अधिकारी अथवा मुखिया बन बैठा तथा शेष लोगों की पहचान श्रमिक के रूप में हुई। वर्ग भेद यही से शुरू हुआ तथा वर्ग विभाजन का भी यही प्रथम बिंदु था।
वर्ग समाज के बाद भावी वर्ग रहित समाज की बात आती है। यह कैसे संभव हो सकेगा कि एक ऐसा समाज बने जो वर्ग और भेद रहित हो।जी थॉमसन का कहना है कि पूंजीवाद ने श्रम की उत्पादकता को इतने उच्च स्तर तक बढ़ा दिया है कि समाज का वर्गों में बंटे होना अब उत्पादक शक्तियों के आगे के विकास में अवरोधक बन रहा है। इस टकराव का एक ही समाधान है समाजवादी क्रांति।पूंजीवादी राज्य को नष्ट करने के बाद कामगारों को एक नई राज्य सत्ता की रचना करनी होगी, जो उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व पाने में उन्हें समर्थ बनाए। इस तरह निजी मुनाफे की पद्धति को खत्म करनी होगी। आदमी के द्वारा आदमी के शोषण को खत्म करने पर टकराव का समाधान हो जाता है और नए भविष्य के वर्ग रहित समाज के लिए वांछित दशाएं तैयार हो जाती हैं।
हेगेल के निषेध का निषेध के नियम पर यदि तीनों समाजों को कसे तो पाएंगे कि वर्गपूर्व समाज का निषेध वर्ग समाज करता है और वर्ग समाज का निषेध वर्ग रहित समाज करता है तो क्या क्या वर्ग रहित समाज के निषेध के रूप में वही वर्ग पूर्व समाज फिर आ जाएगा? ऐसा नहीं है। वर्ग रहित समाज का निषेध इससे भी उन्नत स्तर पर जाएगा। इस पर मार्गन की टिप्पणी अति महत्व की है कि शासन में लोकतंत्र, समाज में भाई चारा, अधिकारों और विशेष सुविधाओं में समानता और शिक्षा में सार्वभौमिकता ये अगले समाज के उच्चतर स्तर के पूर्व लक्षण हैं। अनुभव, बुद्धिमत्ता तथा ज्ञान उसी दिशा में तेजी से प्रवृत्त हैं।पुरातन भद्र समाज की स्वाधीनता, समता और बंधुत्व की एक उच्चतर रूप में वह वापसी होगी।
इस तरह हम देखें तो समाज की गत्यात्मकता की एक झलक हमे मिलती है। यह बात दीगर है कि समाज स्वयं अपना रास्ता ढूंढता है या उसे मार्ग प्रशस्त किया जाता है। अनुभव में तो यही बात सामने आती है कि यदि कृत्रिम प्रयोग किए जाते रहे तो समाज ने उसे नकार दिया और उसने वही मार्ग चुना जो उसके जीवन को सरल बनाते रहे। हमने धर्म के, अर्थ के, अस्पृश्यता के, गरीबी के और सामाजिक न्याय के नाम पर न जाने कितने रास्ते तैयार किए पर समाज अपनी आजादी, सादगी और रोजगार के मार्ग से टस से मस नहीं हुआ। हां बीच-बीच में समाज में कभी टापू की तरह विभेद अवश्य दिखे पर समय की कसौटी पर अधिक दिनों तक टिक नहीं सके।
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