आत्मघाती है मुफ्त की संस्कृति
 इलमा अजीम 
इन दिनों दिल्ली में चुनाव का बोलबाला है। लगता है कि चुनाव जैसी सुपरहिट फिल्म सलीम-जावेद की जोड़ी भी नहीं लिख सकती थी। जिसमें ड्रामा हो, इमोशन हो, नारे हों, नाच-गाना हो, गाली-गलौज हो, एक-दूसरे को सबसे बड़ा खलनायक साबित करने की प्रतियोगिता हो। हर पार्टी अपने को जनता की सबसे बड़ी हितैषी दिखा रही है। इसमें भी तीन सेगमेंट प्रमुख हैं-दलित, पिछड़े और स्त्रियां। बढ़-चढ़कर घोषणाएं की जा रही हैं– ये ले लो, वह ले लो। 


दलित बच्चों के लिए विदेश में पढ़ने के लिए खास स्काॅलरशिप की घोषणा केजरीवाल ने की है तो स्त्रियों के लिए चुनाव जीतने के बाद इक्कीस सौ रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की जा रही है। स्त्रियों पर सबका फोकस है। कांग्रेस कह रही है कि वह यदि चुनाव जीती, तो महिलाओं को प्रतिमाह पच्चीस सौ रुपये देगी। फ्री-फ्री देने की होड़ लगी है। अपने देश की आबादी एक अरब, चालीस करोड़ है। हो सकता है कि अब कुछ और बढ़ गई हो। इनमें 2024 के आंकड़ों के अनुसार मात्र आठ करोड़, बासठ लाख टैक्स देने वाले हैं। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या नौकरीपेशा लोगों की है।
 ऐसे में चुनाव के वक्त मुफ्त यह और मुफ्त वह देने के लिए पैसे कहां से आएंगे, यह कोई नहीं बताता। सरकारें कटोरा लेकर विश्व बैंक और आईएमएफ के सामने खड़ी रहती हैं। और पैसे को तमाम ऐसे कार्यों में लगाने के मुकाबले जहां से लोगों को रोजगार मिल सके, वे आत्मनिर्भर हो सकें, वोट लेने के लिए कुछ न कुछ देने की घोषणाएं करती रहती हैं। दलों को यह मालूम है कि अपने देश में लोगों का लालच जितना बढ़ाओ, वह बढ़ता ही जाता है। अब गांवों में बहुत से लोग काम नहीं करना चाहते। 







उन्हें लगता है कि सरकार मुफ्त में अनाज दे रही है। तरह-तरह की पेंशन मिल रही हैं। लड़कियों की शादी के लिए पैसा मिल रहा है, तो काम क्यों करें। किसी भी देश के विकास के लिए सबसे खतरनाक होता है कि लोगों को लालची बना दिया जाए। उन्हें अपने श्रम के मुकाबले बहुत कुछ मुफ्त में देने का भरोसा दिला दिया जाए। यही अपने देश में हो रहा है।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts