बच्चे और मोबाइल
इलमा अजीम
पिछले एक दशक में कोई चीज सबसे प्रचलित हुई है तो वह मोबाइल फोन है। पांच-सात साल में तो मोबाइल लोगों की जिंदगी में इस तरह घुस गया है कि इसे बाहर निकालना संभव नहीं रह गया है। हर खासो-आम की रोजमर्रा की जिंदगी का अहम और अभिन्न हिस्सा बन गया है। लेकिन चीजें, साधन-सुविधा और तकनीक यदि जिंदगी को सुगम, सहज और सुचारू बनाने की बजाय तकलीफदेह बनाने लग जाए तो सोचना जरूरी हो जाता है। यही स्थिति आज मोबाइल ने ला दी है।
किस तरह की परेशानियां इस मोबाइल युग ने दी हैं, इनकी लंबी फेहरिस्त और भरपूर किस्से-कहानियां हैं, जो सामने आते रहते हैं। इस कड़ी में ताजा प्रसंग यह है कि 70 फीसदी से ज्यादा निजी स्कूलों में बच्चों को होमवर्क और असाइनमेंट ऑनलाइन दिया जा रहा है। रिपोर्ट राजस्थान से जुड़ी है, लेकिन ये स्थिति पूरे देश की है। इसका मतलब है कि हर बच्चे के हाथ में रोज दो से तीन घंटे मोबाइल पकड़ाना अनिवार्य करना।
स्कूली शिक्षक और संचालक जानते हैं कि रोज की एक मिनट की भी लत किसी की भी दुर्गति कर देती है। वे इसका अहसास करना कैसे भूल गए कि तीन घंटे रोज मोबाइल हाथ में पकडऩे वाला बच्चा किस कदर दुष्प्रभावों में घिर जाएगा? बच्चों को जागरूक करने और दिशा दिखाने का दायित्व जिन कंधों पर है, वे ही उन्हें गलत राह पर धकेल रहे हैं। स्क्रीन टाइम बढऩे से आंखें खराब होने, शारीरिक-मानसिक दशा बिगडऩे और कई बीमारियों से घिरने की समस्या हो जाती है। वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कितनी तो रिपोर्ट्स आ चुकी हैं कि मोबाइल की अति से एकाग्रता खत्म हो जाती है, डिप्रेशन बढ़ जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि ऑनलाइन पढ़ाई का अपना महत्त्व है, लेकिन सबकुछ ऑनलाइन ही ला देना तो बिल्कुल भी बुद्धिमतापूर्ण नहीं कहा जा सकता।
कोरोना काल में पूरी पढ़ाई ऑनलाइन हो गई, इसे समझा जा सकता है। दूरी और अत्यधिक दुरूह परिस्थितियों में ऑनलाइन क्लास और होमवर्क हो जाए, इसमें भी बुरी बात नहीं है। लेकिन, सामान्य परिस्थितियों में बच्चों को मोबाइल पर ही निर्भर कर देना, कभी भरपाई ना हो सकने वाला नुकसान ही देगा। इस बारे में शैक्षणिक संस्थाओं को विचार करना चाहिए। बुद्धिमानी इसी में है कि मोबाइल की अति रोकी जाए। मोबाइल को सहयोगी बनाया जाए, न कि सब कुछ।
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