जम्मू-कश्मीर में नई शुरुआत
- कुलदीप चंद अग्निहोत्री
उमर अब्दुल्ला ने एक बार फिर जम्मू कश्मीर की कमान संभाल ली है। 2014 में उन्हें पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सैयद ने अपदस्थ कर दिया था। वैसे कश्मीर में सैयदों की और देसी मुसलमानों की लड़ाई बहुत पुरानी है। मुफ्ती साहिब के इंतकाल के बाद उनकी बेटी सैयदा महबूबा मुफ्ती राज्य की मुख्यमंत्री बन गई थीं। मुफ्ती परिवार का यह राजयोग भाजपा के समर्थन पर टिका था। वैसे यह भी अपने आप में सातवां आश्चर्य ही था कि जनसंघ/भाजपा शुरू से ही स्वदेशी का ही समर्थन करती रही हैं, लेकिन जब कश्मीर में राजसत्ता देने की बात आई तो फैसला सैयदों के हक में दे दिया। इससे राज्य के गुज्जर, दलित और पसमांदा मुसलमान भाजपा से रुष्ट भी हुए थे। लेकिन अब यह पुरानी बात है। वैसे भी हालात कुछ ऐसे बने कि भाजपा ने अपना सहयोग वापस ले लिया। जाहिर है इससे मुफ्ती परिवार के हाथ की लकीरें भी बदल गईं। लेकिन उसके बाद जम्मू कश्मीर में इतना कुछ बदल गया जिसको समझने समझाने में समाजविज्ञानियों को पसीना आने लगा। इतना ही नहीं, पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक में हडक़म्प मच गया। अमेरिका ने बहुत ही चालाकी से भारत को इस मुद्दे पर घेरा हुआ था। दुनिया भर को विश्वास दिला रखा था कि जम्मू कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय है। इन गोरे लोगों ने चाल इतनी ख़ूबसूरती से चली थी कि भारत में भी बहुत से लोग विश्वास करने लगे थे कि कश्मीर दोनों देशों में विवाद का कारण है। इस भ्रम को बनाए रखने के लिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 था ही। कश्मीर घाटी में तो इस मृगमरीचिका का शिकार होकर बहुत से कश्मीरी भी आजादी-आजादी चिल्लाते हुए, पाकिस्तान के साथ जाने के सपने देखने लगे। इसलिए सैयदों की इन अरबी चालों और गोरों की नस्ली चालों को सदा के लिए दफनाने के लिए भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को ही हटा दिया। हडक़म्प मचना तय ही था। लेकिन ज्यादा हो-हल्ला तीन डेरों पर ही मचा। पहला डेरा अब्दुल्ला परिवार का था। यह डेरा जम्मू कश्मीर का स्थानीय या लोकल डेरा था।
यह ठीक है कि डेरे के पूर्वज कभी अति उत्साह में अरबी शेख बनने चले थे, शायद कश्मीरियों को डराने के लिए ही। लेकिन वे जल्दी समझ गए कि दूसरों के कपड़े पहन कर देवदार को खजूर समझने से मानसिक तनाव ही बढ़ता है, इसलिए वे जल्दी ही नकली शेख की वर्दी उतार कर अपने देसी लोगों में ही शामिल हो गए। दूसरा डेरा सैयदों का था। वे अभी भी देवदारों पर खजूरें लगने की तरकीबें तलाश रहे थे। तीसरा डेरा उन अलगाववादियों का आकार ले रहा था जिनका नियंत्रण तो एटीएम (अरब-तुर्क-मुगल) मूल के विदेशी मुसलमानों के हाथ में ही था, लेकिन मजहब के नाम पर उन्होंने कुछ देसी कश्मीरी भी अपने डेरे में बिठा रखे थे। जैसे ही अनुच्छेद 370 खत्म हुआ हड़बड़ाहट में ये तीनों डेरे गुपकार के नाम पर एक साथ रोने लगे। लेकिन इतनी बेसुरी आवाजें निकलीं कि उसमें कश्मीर कहीं सुनाई नहीं दे रहा था। देसी डेरे ने तो अरसा पहले ही अरबी शेख बनने का गैर कश्मीरी रास्ता छोड़ दिया था। वह समय की चाल को भी समझ गया था और समय के महत्व को भी। फिर वह जम्मू कश्मीर का देसी डेरा था, राज्य के देसी मन को कैसे न समझता! अरबी डेरे न तो कश्मीर के मन को समझ पाए और न ही समय की चाल को। यही कारण है कि राज्य के विधानसभा चुनाव में अरबी डेरे उखड़ गए और देसी डेरों ने धमाल मचा दी। जम्मू संभाग में भाजपा ने झंडे गाड दिए और कश्मीर संभाग में अब्दुल्ला परिवार की नैशनल कान्फ्रेंस ने अंगद की तरह पैर जमा दिया। उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनना ही था, लेकिन अनुमान इस बात को लेकर लगाया जा रहा था कि विधानसभा में बहुमत हासिल करने के बाद भी क्या वे राज्य के भीतर की देसी अभिलाषा को पढ़ते रहेंगे या फिर विदेशी भाषा की चालों में फंस जाएंगे। उमर के मंत्रिमंडल को देख कर लगता है वे भूतकाल से निकल कर भविष्य के रास्ते पर चलने का निर्णय कर चुके हैं। चुनाव से पहले नैशनल कांन्फ्रेंस ने कांग्रेस से समझौता किया हुआ था।
जम्मू संभाग की अधिकांश सीटें राहुल गांधी के हवाले करते हुए उसे उसी का मंत्र भी याद दिला दिया था, जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी। लेकिन राहुल गांधी संख्या लेकर हाजिर हुए महज छह की। उसमें भी पांच लोग तो उमर अब्दुल्ला के इलाके कश्मीर के ही थे और जीते भी नैशनल कान्फ्रेंस की मदद से ही थे। कांग्रेस के प्रधान मल्लिकार्जुन खडग़े दिल्ली में बुढ़ापा नृत्य करते रहे कि जम्मू कश्मीर में इंडी गठबंधन जीत गया है, लेकिन उमर ने अपने मंत्रिमंडल में कांग्रेस को शामिल ही नहीं किया। अलबत्ता राहुल गांधी ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश जरूर की कि जब तक जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक उनकी पार्टी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगी। कश्मीर से सकीना इट्टू को मंत्री बनाया गया है। कश्मीर से दूसरे मंत्री जावेद अहमद डार मंत्री बनाए गए हैं। मुख्यमंत्री समेत कश्मीर संभाग से तीन सदस्य हैं। उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर संभाग और जम्मू संभाग में संतुलन बनाने का प्रयास किया है। राजौरी जिला में उनकी पार्टी के सुरेन्द्र चौधरी जीते थे। उनको राज्य का उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। यह अलग बात है कि चौधरी पीडीपी से शुरू करके, भाजपा से होते हुए नैशनल कान्फ्रेंस तक पहुंचे हैं। पुंछ जिला से नैशनल कान्फ्रेंस के ही जावेद अहमद राणा मंत्री बनाए गए हैं। इस प्रकार पीर पंजाल से दो मंत्री हो गए। लेकिन जम्मू के मैदानी इलाकों का क्या किया जाए? उमर इसे छोड़ सकते थे। आखिर उसकी पार्टी को वहां से मिला ही क्या था? लेकिन उन्होंने छम्ब से निर्दलीय विधायक सतीश शर्मा को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके अपनी ओर से संतुलन बनाए रखने का हरसंभव प्रयास किया है। शपथ ग्रहण करने से पूर्व ही उन्होंने अपनी ओर से धुंध साफ करने का प्रयास करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि वे जानते हैं कि वर्तमान परिदृश्य में अनुच्छेद 370 के पुन: जीवित हो उठने का कोई मौका नहीं है। इसलिए वे अपनी ओर से राज्य के लोगों को अन्य नेताओं की तरह झूठे आश्वासन नहीं दे सकते और न हीं देंगे। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जहां तक राजनीतिक दल की हैसियत का सवाल है, नैशनल कान्फ्रेंस और भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है, दोनों अलग अलग राजनीतिक दल हैं। इसलिए अपनी अपनी राजनीतिक लड़ाई लड़ेंगे ही। लेकिन जहां तक सरकारों का सवाल है, राज्य सरकार केन्द्र सरकार से तालमेल बना कर ही चलेगी।
इससे जाहिर होता है कि उमर अब्दुल्ला केवल यथार्थ के धरातल पर ही नहीं खड़े हैं, बल्कि भारत की भीतरी एकात्मता को पहचान रहे हैं। राहुल गांधी के ‘जलेबी स्तर’ और उमर अब्दुल्ला के ‘चिंतन स्तर’ का यही अंतर राज्य में भविष्य की राह बनाएगा। यह भी शायद पहली बार ही हुआ है कि राज्य मंत्रिमंडल में एटीएम गायब है। इसमें देसी कश्मीरी तो हैं, लेकिन सैयद कोई नहीं है। अन्यथा अभी तक संख्या में महज लाख से भी कम होने के बावजूद कब्जा सैयदों व मुगलों का ही होता था। लेकिन एक कमी अभी भी खलती है। इस्लाम पंथ के लोग तो मंत्रिमंडल में हैं, एक शिया पंथ का प्रतिनिधि भी शामिल कर लिया जाता तो पूरा संतुलन बैठ जाता। कश्मीर से शेख और सैयद सत्ता से छिटक रहे हैं, यह अनुमान लगा कर अब्दुल्ला परिवार ने तो शेख वाला अरबी टोप उतार दिया है। सैयद भी देसी सफों में घुस गए। यह पहली बार हुआ कि इतने ज्यादा विधायकों ने कश्मीरी भाषा में शपथ ली। यहां तक कि मुश्किल से कश्मीरी भाषा बोलने वाले उमर अब्दुल्ला ने विधायक पद की शपथ कश्मीरी में ली। विधानसभा के कुछ सदस्यों ने तो संस्कृत भाषा में शपथ ग्रहण की। जम्मू वालों ने तो डोगरी में शपथ लेनी ही थी लेकिन एक सदस्य ने शीना भाषा में प्रतिज्ञा की। पहली बार लगा कि यह जम्मू कश्मीर की विधानसभा है और भाषा में ही बोलती है।
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