जलवायु संकट और विश्व
इलमा अजीम 
ग्लोबल वार्मिंग संकट रौद्र रूप दिखा रहा है। ऐसे में बाकू में संपन्न कॉप-29 सम्मेलन में दुनिया की आबोहवा बचाने की दिशा में ठोस निर्णय न हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल, विकसित देश विगत में की गई अपनी घोषणाओं से पीछे हट रहे हैं। वे गरीब मुल्कों को ग्लोबल वार्मिंग संकट से निपटने के लिये आर्थिक मदद देने को तैयार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि दुनिया पर जलवायु संकट के गंभीर परिणामों से विकसित देश वाकिफ नहीं हैं। अमेरिका से लेकर स्पेन तक मौसम के चरम का त्रास झेल रहे हैं। लेकिन इसके घातक प्रभावों को देखते हुए भी सभी देश समाधान निकालने को लेकर सहमति क्यों नहीं बना पा रहे हैं। 



कहना गलत न होगा कि विकसित देशों द्वारा अक्सर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन हाथी के दिखाने के दांत साबित हो रहे हैं। दशकों से चले आ रहे सम्मेलनों के बावजूद जलवायु संकट दूर करने के लिये सभी देशों की हिस्सेदारी व जिम्मेदारी तय नहीं हो पा रही है। यह हकीकत है कि धनी देशों के रवैये के चलते विकासशील देश खुद को छला महसूस कर रहे हैं। आखिर धनी व गरीब मुल्कों के बीच सम्मेलन के बाद भी अविश्वास का वातावरण क्यों बना हुआ है। निश्चित रूप से यह स्थिति भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये साझा प्रयासों की संभावना को ही खत्म करेगी। भले ही संकट से निपटने के लिये पर्याप्त धन न जुटाया जा सके,लेकिन यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इस मुद्दे में दुनिया के देशों में सहमति बन सके। 



निस्संदेह, मतभेद मनभेद में न बदलें और दुनिया के तमाम देश जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से मुकाबले के लिये एकजुट होने का संकल्प लें। यही वजह है कि भारत ने टूक शब्दों में कहा कि जलवायु संकट से निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ विकासशील देशों की ही नहीं है। निस्संदेह, धनी मुल्कों को जवाबदेही से भागने से बचना चाहिए। यही वजह है कि कॉप-29 में विकासशील देशों की चिंता व नाराजगी को भारत ने आवाज दी है। भारत ने सम्मेलन में ग्लोबल साउथ देशों का नेतृत्व करके धनी देशों को आईना दिखाया। 

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