पहले अपने को सुधारें
इलमा अजीम
पर्यावरणविद जलवायु परिवर्तन को लेकर आज सबसे बड़ी चिंता पानी और वायु प्रदूषण से जुड़ी है। ये दोनों ही जीवन के आवश्यक तत्व हैं और इनके बिगडऩे का अर्थ है पृथ्वी पर जीवन के लिए एक नए संकट की शुरुआत। जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नया नहीं है। पृथ्वी के 4.6 अरब वर्ष के इतिहास में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनके कारण जलवायु में बदलाव हुआ। तब इन घटनाओं में प्रमुख कारण ज्वालामुखी विस्फोट और बड़े उल्का पिंडों का पृथ्वी से टकराना रहा है। इनसे कई बार पृथ्वी पर बर्फ युग का आगमन हुआ, जिससे जीवन पर गहरा प्रतिकूल असर पड़ा। पहले जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण होता था, पर आज इसका प्रमुख कारण मानव गतिविधियां हैं। मतलब अब एक बार फिर अंत के इतिहास की शुरुआत हो चुकी।
मानव द्वारा किए गए नुकसान ने पृथ्वी पर कई प्रजातियों को विलुप्त कर दिया है। आज बड़े जल स्रोत संकट में हंै। विशेषकर, ग्लेशियर, जो पृथ्वी के सबसे बड़े पानी के भंडार हैं, खतरे में हैं। हाल ही केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया भर में ग्लेशियर क्षेत्र की, विशेषकर भारत के पांच राज्यों में, झीलों के आकार में वृद्धि देखी जा रही है। इस वृद्धि का मुख्य कारण ग्लेशियरों का पिघलना है, जिससे झीलें बन रही हैं। अध्ययन में यह पाया गया है कि 2011 से 2024 के बीच इन झीलों का क्षेत्रफल 40 प्रतिशत तक बढ़ गया है। भारत के लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य, जहां अधिकतर हिमालयी क्षेत्र हैं, इन बदलावों से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
ये झीलें भविष्य में ‘ग्लेशियर लेक आउटबस्र्ट फ्लड’ जैसी आपदाओं का कारण बन सकती हैं। केदारनाथ त्रासदी और गत वर्ष सिक्किम की घटना इसी तरह के उदाहरण हैं, जहां ऊंचाई पर स्थित झीलों के फटने से बाढ़ ने तबाही मचाई थी। ये परिवर्तन सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं। भूटान, नेपाल और चीन जैसे देश भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण और तापमान बढऩे से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे नदियों, झीलों और अन्य जल स्रोतों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। 2011 में ग्लेशियर झीलों का क्षेत्रफल 5,33,000 हेक्टेयर था, जो 91,000 हेक्टेयर हो गया है। इससे हिमालय के जल स्रोतों से खतरे का अंदेशा दिखता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण जल वाष्पीकरण की मात्रा में भी वृद्धि हुई है, जिससे बाढ़ जैसी आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं। हिमालय, आर्कटिक और अंटार्कटिका में स्थित ग्लेशियर, जो कि पृथ्वी के 70 प्रतिशत पीने के पानी का स्रोत हैं, बाढ़ ही नहीं बल्कि भविष्य में जल संकट का कारण भी बन सकते हैं। अब समय आ गया है कि देश इस स्थिति पर गंभीरता से चर्चा करे। यह विचार-विमर्श आवश्यक है कि भविष्य में पानी की उपलब्धता और उसका सही उपयोग कैसे हो, ताकि जल संकट से बचा जा सके। बात साफ है कि अगर प्रकृति के कहर से बचना है तो पहले अपने देश में ही ठोस निर्णय लें ओर विश्व के लिए उदाहरण बनें। कहा भी गया है कि चैरिटी पहले घर से ही शुरू होती है।
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