भयावह हादसे
इलमा अजीम
भारत की सड़कों पर चलना अब जान हथेली में रखकर चलने जैसा ही होता जा रहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसी दुर्घटनाओं में निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं। वे लोग जो अपने परिवारों के भरण-पोषण के संघर्ष में जुटे रहते हैं। जिनके लिये यह जीवन भर का दुख बन जाता है। वहीं कई घायल जीवनभर के लिये विकलांगता झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं। कमोबेश सारे देश में ऐसी घटनाएं सुनने में आती हैं जिनमें रोज सैकड़ों लोगों की जीवन लीला समाप्त हो जाती है। देश की इन कातिल सड़कों की हकीकत बताता केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय का एक डराने वाला आंकड़ा पिछले दिनों सामने आया। मंत्रालय के अनुसार पिछले दस सालों में हुए सड़क हादसों में 15 लाख लोग मारे गए। यह आंकड़ा भयावह है और इस गंभीरता को संबोधित करने की जरूरत बताता है।
दरअसल, वर्ष 2014 से 2023 के बीच सड़क हादसों में 15.3 लाख लोग मारे गए। बताते हैं कि सड़क हादसों में मरने वाले लोगों में भारत दुनिया में शीर्ष पर है। यह हमारी व्यवस्था की नाकामी को भी उजागर कर रहा है कि क्यों हर साल डेढ़ लाख लोग मारे जा रहे हैं। सवाल उठाया जा सकता है कि आखिर भारत की सड़कों पर चलना जान हथेली पर लेकर चलने जैसा क्यों होता जा रहा है? आखिर दस साल में केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ जैसे शहर की आबादी से ज्यादा लोग क्यों अकारण मौत के मुंह में चले जाते हैं? आखिर उन लोगों का क्या कसूर था कि उनके हिस्से में ऐसी दर्दनाक मौत आई? निश्चित रूप से भारत में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों का यह आंकड़ा एक संवेदनशील व्यक्ति को हिलाकर रख देता है। हालांकि, देश में समय के साथ वाहनों की संख्या और सड़क निर्माण में भी वृद्धि हुई है, लेकिन दुर्घटनाओं का आंकड़ा कम नहीं हो रहा है। वर्ष 2012 में करीब 16 करोड़ गाड़ियां रजिस्टर्ड थी जो पिछले एक दशक में दुगनी हो गई हैं।
लेकिन उस अनुपात में सड़कें नहीं बढ़ीं। जहां वर्ष 2012 में देश में भारतीय सड़कों की लंबाई 48.6 लाख किलोमीटर थी, तो वर्ष 2019 में यह 63.3 लाख किलोमीटर तक जा पहुंची थी। यहां यह विचारणीय प्रश्न है कि सड़क सुरक्षा के तमाम उपायों के बावजूद देश में सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या कम क्यों नहीं हो रही है।
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