न हो लद्दाख आंदोलन की अनदेखी
- कुलभूषण उपमन्यु
एक महीने से ज्यादा समय से लद्दाख से अपनी मांगों को लेकर पदयात्रा करते हुए सोनम वांगचुक के नेतृत्व में दिल्ली पहुंच कर सौ से ज्यादा लोग बैठे हैं। कठिन जलवायु में इतनी लंबी यात्रा करके 80 वर्ष के बूढ़े साथियों समेत यह दल दिल्ली पहुंचा है। दिल्ली पुलिस का इनके साथ व्यवहार कुछ अच्छा नहीं रहा। बिना कारण आप क्यों शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात कहने के लिए इतने कष्टों के बाद दिल्ली पहुंचने पर उनके साथ शकिया लोगों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। पुलिस की यह अति सक्रियता स्वयंभू थी या प्रेरित, यह कहना तो कठिन है, किन्तु अवांछित थी, यह तो निश्चय ही कहा जा सकता है। उसके बाद भी अभी तक सरकार की ओर से आंदोलनकारियों से बातचीत का कोई संदेश मिला नहीं लगता।
हरियाणा और जम्मू एवं कश्मीर के चुनाव के चलते सरकार की अति व्यस्तता तो समझ में आती है, किन्तु अब कोई बाधा नहीं दिखती, इसलिए यह आशा की जानी चाहिए कि सरकार अति शीघ्र वार्ता करके सोनम वांगचुक का आमरण अनशन समाप्त करवाएगी और समस्या का सर्व समावेशी हल तलाश करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त करेगी, ताकि शांति बनी रहे। सोनम वांगचुक पिछली सर्दियों में भी लद्दाख की कुछ मांगों को लेकर लंबा अनशन कर चुके हैं। उनकी कुछ मांगें केवल लद्दाख केन्द्रित हैं और कुछ पूरे हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण को बचाने से संबंधित हैं। लद्दाख को सी श्रेणी राज्य का दर्जा देकर विधानसभा और उप राज्यपाल की व्यवस्था की जा सकती है। जाहिर है कि स्थानीय समस्याओं को जितना चुने हुए प्रतिनिधि समझ सकते हैं उतना प्रशासनिक तंत्र नहीं समझ सकता, जिससे लोगों में असंतोष बना रह सकता है। इस सीमान्त क्षेत्र में देश किसी असंतोष को सहन करने की स्थिति में नहीं है। दूसरी मांग छठी अनुसूची में डालने की है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 के अनुसार छठी अनुसूची लागू की गई। छठी अनुसूची को स्वायत्त जिला परिषदों की स्थापना और संचालन करके स्वदेशी आदिवासी समूहों की रक्षा के लिए बनाया गया था। असम, मिजोरम और मेघालय में तीन-तीन स्वायत्त जिला परिषदें हैं, त्रिपुरा में केवल एक है। स्वायत्त जिला परिषदों को अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों के लिए कानून बनाने का अधिकार है, जिसमें भूमि, खेती, विरासत, वन, और रीति-रिवाजों सहित आदिवासी और स्वदेशी समूहों से संबंधित हर पहलू को शामिल किया गया है। उन्हें भूमि और अन्य कर एकत्रित करने का भी अधिकार है। इससे छठे अनुसूची क्षेत्रों को बाहरी दबावों से बचाव की प्रभावी शक्तियां मिल जाती हैं, जिनका उपयोग स्थानीय संवेदनशील पर्यावरण और परंपराओं को संरक्षित करने में किया जा सकता है। पर्वतीय लोग आर्थिक रूप से उतने सशक्त नहीं होते क्योंकि वहां संसाधनों की कमी रहती है। यदि कुछ संरक्षण न दिया जाए तो पैसे वाले लोग वहां के संसाधनों को खरीद कर स्थानीय लोगों को हाशिए पर ला सकते हैं। यह डर सभी पर्वतीय राज्यों में कमोबेश रहा है। आदिवासी लोगों में यह और भी ज्यादा है।
इस मुद्दे पर चर्चा करके रास्ता निकाला जा सकता है। लेकिन उनकी चिंता निराधार नहीं ठहराई जा सकती। सुना गया है कि लद्दाख के लोगों से छठी अनुसूची में लाने का वादा वर्तमान सरकार द्वारा किया गया था, तो इस समस्या को हल करने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। फिर भी सरकार हिचकिचा क्यों रही है, समझ से परे है। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मुद्दों के बारे में उनकी मांगें हिमालय व्यापी महत्व रखती हैं। इसी कारण अन्य हिमालयी राज्यों में भी सोनम वांगचुक के संघर्ष के प्रति समर्थन का भाव है।
पर्यावरण मित्र विकास और बृहदाकार निर्माण आधारित विकास में टकराव पूरे हिमालय में ही देखने को मिल रहा है। बृहदाकार निर्माण आधारित विकास संवेदनशील हिमालयी परिस्थिति तंत्र को तोडफ़ोड़ कर आगे बढ़ता है जिससे एक ओर पर्वतीय क्षेत्रों में मानव निर्मित आपदाओं में बढ़ोतरी हो रही है, तो दूसरी ओर लोगों को पर्याप्त रोजगार भी नहीं मिल रहे। आपदाग्रस्त और विस्थापितों का पुनर्वास भी बड़ी समस्या बना हुआ है। भाखड़ा और पौंग बांधों के विस्थापित अभी तक भी पूरी तरह से बस नहीं पाए हैं। इसलिए हिमालय में विकास के लिए वैकल्पिक मॉडल की खोज नवाचार के माध्यम से करनी होगी। कम से कम इतना तो मान कर ही चलना होगा कि हिमालय के लिए ‘स्माल इज ब्यूटीफल’ पर्वतीय राज्यों पर जलविद्युत उत्पादन का बड़ा दबाव है। इसमें कुछ नदियां तो लुप्त प्राय: ही हो गई हैं। ये झील में हैं या सुरंग में हैं।
नदी तंत्र की रक्षा के लिए नदी दोहन की कोई सीमा निर्धारित करनी होगी। मान लो 60 फीसदी से ज्यादा नदी का दोहन नहीं करेंगे, तो नदी भी जिंदा रहेगी और बिजली भी बन जाएगी। हिमाचल उच्च न्यायालय ने नदी तंत्र पर जल विद्युत उत्पादन संबंधी मुद्दों पर रिपोर्ट देने के लिए अभय शुक्ल कमेटी का गठन किया था। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में 7000 फुट से ऊपर जल विद्युत परियोजनाएं न लगाने की संस्तुति की। किन्तु इस तरह के किसी भी संयम को मानने में वर्तमान व्यवस्थाएं असफल रही हैं। देखा जाए तो इस आधार पर हिमाचल में जल विद्युत उत्पादन की संतृप्ति सीमा आ चुकी है, किन्तु जल विद्युत क्षमता का आकलन बढ़ता ही जा रहा है। बड़े-बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के बजाय यदि हर गांव में एक मेगावाट सौर ऊर्जा रूफटॉप और अनुपजाऊ भूमि पर बना ली जाए तो भारतवर्ष में 6 लाख मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है। आसान ऋण व्यवस्थाएं और हरित ऊर्जा सब्सिडी द्वारा इसे संभव और लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
इससे पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार और आजीविका के अवसर भी पैदा होंगे और वृहदाकार निर्माण आधारित तोडफ़ोड़ से भी बचा जा सकेगा। अर्थात वैकल्पिक तकनीकें उपलब्ध भी हैं, नवाचार से खोजी भी जा सकती हैं। केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से दृढ़तापूर्वक निर्णय लागू करने की जरूरत है। आशा की जानी चाहिए कि लद्दाख आंदोलन को हल करने के लिए इस दिशा से सोचा जाएगा। ऐसी सोच होना जरूरी भी है। आंदोलन अपने आप में गैर राजनीतिक है, किन्तु ऐसी स्थितियों में राजनीतिक दलों को भी मुद्दा उड़ाने की कोशिशों से रोका नहीं जा सकता। फिर भी यदि वर्तमान भाजपा सरकार मुद्दे को सुलझा लेती है तो उसे इसका राजनीतिक लाभ भी मिल ही जाएगा। केंद्र की मोदी सरकार से लद्दाख को बड़ी आशाएं
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