इजरायल के विवाद में ईरान
- कुलदीप चंद अग्निहोत्री
इजराइल को लेकर फिलिस्तीन, लेबनान और बेरूत में विवाद चलता रहता है। एशिया में यहूदियों की भूमि पर जब ईसाई मजहब और इस्लाम मजहब ने आकार ग्रहण करना शुरू किया तो हालात ऐसे बने कि यहूदियों को अपने देश से भागना पड़ा। जिसको जहां भी आश्रय मिला, वह उसी देश में जाकर बस गया। बहुत से यहूदी हिंदुस्तान में आकर भी बस गए। लेकिन देखते-देखते पूरा यूरोप अपने पूर्वजों के रास्ते को छोड़ कर ईसाई मजहब के नए रास्ते पर चल पड़ा। बाद में एशिया में उसी क्षेत्र में जहां ईसाई मत पैदा हुआ था, इस्लाम पंथ का उदय हुआ। इस नए मत में दीक्षित हुए अरबों और तुर्कों ने एशिया/जम्बू द्वीप के देशों को तो पकड़ा ही, लेकिन इसके साथ ही उसने अफ्रीका और यूरोप के देशों में भी ईसाई मजहब को अपदस्थ करने के लिए युद्ध छेड़ दिया। इन संघर्षों का सबसे ज्यादा नुकसान यहूदियों को ही भुगतना पड़ा। उनका देश खत्म हो गया, लेकिन इसके साथ ही यहूदियों को यूरोप में भी ईसाइयों के प्रहारों का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन विश्व युद्धों ने एक बार फिर दुनिया का राजनीतिक नक्शा बदल दिया। नए नक्शे में यहूदियों को एक बार फिर से उनका परम्परागत देश वापस मिल गया। दुनिया के नक्शे पर फिर से इजरायल दिखाई देने लगा। दुनिया भर में बिखरे यहूदी अलग-अलग देशों से आकर इजरायल में बसने लगे।
जाहिर है अब यहूदियों के लिए पवित्र इस क्षेत्र का कुछ हिस्सा उन फिलिस्तीनी, लेबनानी या दूसरे लोगों को छोडऩा पड़ा जो इस लम्बे कालखंड में यहां बस गए थे। इतना ही नहीं, इस कालखंड में यहां बस गए लोगों ने इस्लाम या ईसाईयत नाम के अलग मजहबों को भी अपना लिया था। वैसे तो यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों ही ‘पीपल्स ऑफ दि बुक’ माने जाते हैं, लेकिन काल के अंतराल ने अब इनको एक-दूसरे का शत्रु ही बना दिया था। वैसे भी इजराइल चारों ओर से अपने विरोधी मजहबों को मानने वाले देशों से ही घिरा हुआ है। इन देशों को यह भी लगता है कि इजराइल उनको अपदस्थ करके स्थापित हुआ है। अपने निर्माण काल से ही इजराइल को निरंतर अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩी पड़ रही है। लेकिन प्रश्न है कि इस सारे खेल में ईरान क्या कर रहा है? ईरान इजराइल से शत्रुता धर्म किस आधार पर निभा रहा है? क्योंकि सभी जानते हैं कि लेबनान और दूसरे स्थानों पर ईरान, इजराइल के खिलाफ एक आतंकवादी संगठन हिज्बुल्लाह को शह देता रहता है। केवल शह ही नहीं, कुछ विद्वान तो यह कहते हैं कि हिज्बुल्लाह ईरान की ही अवैध संतान है। लेकिन प्रश्न फिर वही है कि ईरान का उस पचड़े से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से क्या लेना-देना है? इसके लिए सबसे पहले ईरान की अपनी स्थिति या इतिहास को समझ लेना होगा। दरअसल जिस वक्त अरबों ने हजरत मोहम्मद के रास्ते पर चलने का निर्णय किया, उसी समय अरब के अनेक कबीलों में एकता भी दिखाई देने लगी।
जाहिर है एकता के इस प्रदर्शन के साथ ही अरबों ने उस एकता का लाभ लेने के लिए अपने परम्परागत शत्रुओं पर सैनिक हमले शुरू कर दिए। ईरान उसका पहला शिकार हुआ। वह अरबों से पराजित ही नहीं हुआ, बल्कि उसको सजा देने के लिए हमलावरों ने यह शर्त भी लगा दी कि पराजित ईरानियों को अपना मजहब छोड़ कर अरबों का नया मजहब ही अपनाना होगा। विवशता में ईरानियों को अपना परम्परागत मजहब छोडऩा पड़ा। उन्होंने अरबों का मजहब स्वीकार तो कर लिया, लेकिन अपने इस अपमान को भुला नहीं पाए। लेकिन उनको अपना अवसर इस्लाम मजहब के संस्थापक हजरत मोहम्मद के 632 में हुए देहावसान के लगभग पांच दशक बाद 680 में मिला। अरबों में हजरत मोहम्मद के उत्तराधिकारी को लेकर विवाद तो उनके देहावसान के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था।
अरबों के बड़े व ताकतवर कबीलों ने हजरत मोहम्मद (उनका कोई बेटा नहीं था) के दामाद हजरत अली को उत्तराधिकारी, जिसे खलीफा कहा गया, मानने से इन्कार कर दिया। यह स्थान अबू बकर को दिया गया। इसके बाद भी बारी हजरत उमर और उस्मान की ही आई। हजरत अली को दूर ही रखा गया। तीसरे खलीफा के देहांत के बाद अली खलीफा तो बना दिए गए, लेकिन विरोधी पक्ष के अरबों ने जल्दी ही उनकी नमाज अता करते समय हत्या कर दी। लेकिन अब तक अरबों ने कई देशों पर कब्जा भी कर लिया था और वहीं बलपूर्वक अरबों का यह नया मजहब भी लागू कर दिया था । लेकिन स्वयं अरब देशों में और अरबों द्वारा कब्जा किए गए देशों में प्रशासन अच्छा और न्यायपूर्ण नहीं था। लोग मुसलमानों के इस अत्याचारी शासन से बहुत त्रस्त थे। हजरत अली के सुपुत्र हजरत हुसैन ने इसे चुनौती दी, लेकिन मुसलमानों ने उनको पूरे परिवार समेत कर्बला के मैदान में धोखे से अमानवीय तरीके से मार दिया। इस युद्ध में हजरत हुसैन की सहायता करते हुए मोहियाल ब्राह्मण भी मुसलमानों के खिलाफ लड़े थे। ब्राह्मण सेनापति राहिब दत्त के सातों बेटे इस लड़ाई में शहीद हो गए थे। मोहियाल ब्राह्मणों का उद्गम पेशावर के आसपास माना जाता है और ब्राह्मणों में मोहियाल मार्शल रेस माने जाते हैं। जम्मू कश्मीर के पुंछ में आज भी मोहियाल ब्राह्मणों के घर हैं। इमाम हुसैन के पक्ष में लडऩे के कारण मोहियाल ब्राह्मणों को हुसैनी ब्राह्मण भी कहा जाता है।
हजरत हुसैन की शहादत के बाद उसके अनुयायियों ने शिया मजहब के नाम से नया पंथ चलाया। ईरान के लोगों ने तुरंत इस नए पंथ को अपना लिया। ईरान और अरबों का झगड़ा तो इस्लाम मजहब के उदय होने से भी पहले का है, लेकिन बीच के एक छोटे से कालखंड में उन्हें अरबों का मजहब ही मानना पड़ा। परंतु जल्दी ही वे शिया पंथ के विस्तारक हो गए। लेकिन काल का चक्र यहीं नहीं रुका। धीरे-धीरे विश्व राजनीति में अरब हाशिए पर आ गए। ओटोमन साम्राज्य के ध्वस्त होने के बाद तुर्क भी हाशिए पर पहुंच गए। ईरान की शक्ति बढऩे लगी। काल का एक चक्र पूरा हो गया लगता है। अब ईरान चाहता है कि अरब देश उसका नेतृत्व स्वीकार करें। ईरान न्यूक्लिअर शक्ति बनने की ओर अग्रसर है।
अरब देशों का इजराइल से वैर है। लेकिन वे इजराइल को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में यदि इजराइल को चुनौती देता है तो जाहिर है अरब देश इतना तो मान ही लेंगे कि यदि भविष्य में इजरायल अरब देशों को तंग करता है, तो वे कम से कम ईरान की शरण में तो जा ही सकते हैं। यह युद्ध भयंकर स्थिति की ओर बढ़ रहा है। युद्ध अगर नहीं रोका गया, तो इसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बुरे प्रभाव पड़ेंगे। दोनों को बातचीत की मेज पर इकट्ठे होना होगा, तभी यह समस्या सुलझ सकती है। लेकिन यथार्थ यह है कि दोनों ही पक्ष युद्धोन्माद में रत हैं और युद्धविराम के लिए कोई भी पक्ष तैयार नहीं है। दोनों पक्षों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। ऐसी भी आशंका है कि इस मसले पर तीसरा विश्व युद्ध भी छिड़ सकता है। इसलिए मध्यस्थता के कौशल में प्रवीण शक्तियों को आगे आकर युद्ध रुकवाना होगा।
(वरिष्ठ स्तंभकार)
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