ईमानदार कोशिश हो

इलूमा अजीम 
लोकसभा में पहले के मुकाबले कमजोर स्थिति होने के बावजूद खुद को बेफिक्र दिखाने की बेताब कोशिश में एक बार फिर अपने एक मुख्य एजेंडे- एक राष्ट्र,एक चुनाव- के मुद्दे को हवा दे दी है। पिछले दिनों स्वतंत्रता दिवस समारोह में लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विभिन्न राजनीतिक दलों से इस पहल का समर्थन करने के लिये एकजुट होने की अपील की थी। उन्होंने कहा था कि देश में वर्ष पर्यंत चलने वाले चुनाव भारत की प्रगति में बाधक बन रहे हैं। कहा गया कि राजग सरकार अपने वर्तमान कार्यकाल के भीतर इस महत्वपूर्ण चुनाव सुधार को लागू कराने को लेकर आशावादी है। अब इसे राजग का आशावाद कहें या अति आत्मविश्वास, जो उन्हें इस तथ्य को नजरअंदाज करने देता है कि कई राजनीतिक दलों ने एक साथ चुनाव कराने का विरोध किया था। निस्संदेह, एक राष्ट्र, एक चुनाव के लिये भाजपा द्वारा नई पहल किए जाने के निहितार्थ समझना कठिन नहीं है।


 यह भी हकीकत है कि संसदीय चुनाव और विधानसभा चुनाव में अकसर अलग-अलग मुद्दे प्रभावी होते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव कराये जाने पर एनडीए के साथ गठबंधन न करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसमें दो राय नहीं कि यह बात तार्किक है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव का प्रयास शासन में सुनिश्चितता लाएगा। वहीं बार-बार के चुनाव खर्चीले होते हैं। दूसरे राज्य-दर-राज्य लंबी आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य भी बाधित होते हैं। साथ ही साथ शासन-प्रशासन व सुरक्षा बलों की ऊर्जा के क्षय के अलावा जनशक्ति का अनावश्यक व्यय होता है। 



लेकिन वहीं दूसरी ओर इसके लागू होने से भारतीय संघीय ढांचे के लिये जो चुनौती पैदा होगी, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।पारदर्शी व निष्पक्ष चुनाव के लिये एक साथ चुनावी मशीनरी तथा सुरक्षा बलों की उपलब्धता के यक्ष प्रश्न भी हमारे सामने खड़े हैं। ऐसे में इसके सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  एक स्वतंत्र पत्रकार ,मेरठ 

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