क्या हमारे सियासतदां को यह कुबूल है !

- अजित राय
इस लेख के माध्यम से, आदरणीय सुधी पाठकों को पूरी विनम्रता के साथ आश्वस्त करना चाहूंगा कि बेशक, थोड़ा विलंब हूं, थोड़ी देर से कलम उठाई है, मगर समाज के बीच घट रही बेदर्द घटनाओं के प्रति, जितनी शारीरिक सिहरन से आप दो-चार हैं, उतना ही मैं भी। ईमान से!
यहां यह बताना जरूरी समझता हूं कि, आज से कोई 15 दिन पहले हमनें अपनी आजादी की 78वीं वर्षगाँठ को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया था। है न! मगर, क्षमायाचना के साथ यह भी बताना जरूरी समझता हूं कि, चाहे हम अपनी आजादी की जितनी भी वर्षगाँठ मना लें, अगर देश के किसी भी कोने में, हमारी मां, बहनें, बेट्टियां महफूज नहीं, तो ऐसी वर्षगाँठ मनाना और उसपर गुमान करना, किसी गुनाह से कम नहीं!


ऐसा मेरा विश्वास है कि, मेरा इशारा किस ओर है, को समझने में आपको लेशमात्र भी परेशानी नहीं हो रही होगी। मेरा इशारा सीधे-सीधे, इसी माह कोलकाता के आरजी कर अस्पताल के अधिकारियों द्वारा नौ अगस्त की 'सुबह' एक प्रशिक्षु डाक्टर से दुष्कर्म- हत्या की ओर है। हो सकता है यह घटना, किसी के लिए महज एक घटना हों, पर, मेरे हिसाब से तो यह मानव सभ्यता और इंसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी घटना से दामन छुड़ाने/ मुक्ति पाने के प्रति, आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम भारतवासी कितने उदासीन हैं, का प्रतिबिम्ब है। क्योंकि, अगर ऐसा नहीं होता, तो आज से बारह साल पहले दिल्ली की निर्भया कांड के बाद, इंसानियत को शर्मसार करने, मानव सभ्यता को दागदार बनाने वाली ऐसी घटनाओं पर विराम लग गया होता। पर नहीं, यहां तो विराम लगने की बात दूर, थमने तक का नाम नहीं ले रहा! कितने दुख और आश्चर्य की बात है कि, जिस तरह के अपराध से हमारी मानव सभ्यता को सबसे पहले दामन छुड़ा लेना चाहिए था, उसी अपराध को आज हमारे बीच, कई लोग ऐसे अंजाम दे रहे हैं कि इंसानियत पर भी शक होने लगा है।
    यहां सवाल यह उठता है कि, ऐसी घटनाओं के प्रति देश का सजग और विधि-प्रिय नागरिक जितने विचलित हैं, क्या हमारी व्यवस्थाएं भी उतनी ही चिंतित हैं? संभवतः, बहुमत में इसका जवाब नहीं ही होगा! क्योंकि, ऐसी घटनाओं के प्रति हमारी व्यवस्थाएं अगर चिंतित होतीं, संवेदनशील होतीं, तो ऐसी घटनाओं पर शासनिक-प्रशासनिक लीपापोती की गुंजाइश ही नहीं होती, पर यहां तो...!



   इस घटना के बाद, आज फिर समाज में गुस्सा चरम पर है, जो इशारा कर रहा है कि देश- प्रदेश की कानून व्यवस्था से लोग संतुष्ट नहीं हैं। आज फिर हमें एक तरफ, गांधी के सत्य, प्रेम अहिंसा, तो दूसरी तरफ, शास्त्रीजी की दृढ़ता को याद कर आगे बढ़ने की जरूरत है। यहां यह भी जरूरी है कि, एक तरफ ऐसी घटनाओं के प्रति तंत्र को पूरी कड़ाई से अपने व्यवहार को परखना चाहिए, तो वहीं दूसरी तरफ राजनेताओं को, अपने दायरे में समदर्शी भाव रखना चाहिए। साथ ही, कानून-व्यवस्था के मामले में कम से कम राजनीति हो, और सभी राजनीतिक दल, अपने- अपने राज्य में, ऐसे अपराधों को काबू में करने को हरसंभव प्रयास करें। अगर ऐसा कुछ कर पाएं, तो इससे बढ़कर आज कोई दूसरी राष्ट्र-सेवा नहीं हो सकती।
(अधिवक्ता, पटना उच्च न्यायालय)

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