इलमा अजीम
स्वतंत्रता दिवस की 78वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरंद्र मोदी ने अपने भाषण में महिला अपराधों और अत्याचारों पर भी अपनी पीड़ा व्यक्त की और फांसी की सजा तक का सुझाव दिया। बेशक देश की स्वतंत्रता का मौका था, लिहाजा औसत नागरिक जश्न, उल्लास और आनंद के मूड में था, लेकिन संभ्रांत लोगों के शहर कोलकाता में, आधी रात के आसपास, अचानक एक भीड़ उमड़ आई। सैकड़ों होंगे अथवा हजारों होंगे, यह गणना बेमानी है। वे गुंडे-बदमाश, हिंसक और विध्वंसक थे। उनके हाथों में लाठियां, डंडे थे और वे काफी उग्र लग रहे थे। स्वतंत्रता की पूर्व रात्रि में भारतीय ही भारतीय पर हमलावर होगा, ऐसी आजादी की हमने कल्पना तक नहीं की थी। क्या हमें ऐसी ही आजादी चाहिए? भीड़ ने पहला हमला प्रदर्शनकारी डॉक्टरों पर किया। उन्हें तितर-बितर किया। मारा-पीटा, तोड़-फोड़ की और प्रदर्शन का मंच ही ध्वस्त कर दिया। उसके बाद भीड़ उस सरकारी अस्पताल के अंदर घुस गई, जहां कुछ दिनों पहले ही 31 वर्षीय ट्रेनी डॉक्टर के साथ बर्बर बलात्कार किया गया और बाद में दरिंदगी से उसकी हत्या भी कर दी गई थी। अस्पताल के भीतर भी खूब तोड़-फोड़ की। आपातकालीन कक्ष और बिस्तरों को भी नहीं छोड़ा। आखिर वह भीड़ कहां से आई? कौन थे वे गुंडे और उनकी मंशा क्या थी? भीड़ की अराजकता से, अंतत:, किसे लाभ हो सकता है? बंगाल पुलिस कहां थी? पुलिस और भीड़ में कोई सांठगांठ थी क्या? क्या सीबीआई जांच भी प्रभावित होगी? दरअसल यह भीड़ और यह मार-काट बंगाल की नई परंपरा, नया रूटीन बन गई है। कभी संदेशखाली में, तो कभी 24 परगना अथवा किसी अन्य क्षेत्र में भीड़ हिंसा पर उतारू उमड़ती है। हत्याएं तक करना आम बात है। ममता बनर्जी 2011 से मुख्यमंत्री एवं गृहमंत्री हैं, लिहाजा कानून-व्यवस्था की बुनियादी जिम्मेदारी उन्हीं की है। क्या देश की स्वतंत्रता के दिन भी ऐसी उन्मादी, उग्र भीड़ तोड़-फोड़, मार-काट करने को स्वतंत्र है? देश की महिलाएं, देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री से, पूछ रही हैं कि आखिर ममता किसकी ‘दीदी’ हैं?
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