राहुल की जनगणना की मांग के परिणाम

- कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वर्ष 1857 की आजादी की पहली लड़ाई के बाद जब ब्रिटेन ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपदस्थ कर भारत का शासन स्वयं संभाल लिया तो उसने 1880 में भारत में पहली बार जनगणना शुरू की। उस समय मरदमशुमारी के लिए हिंदू, मुसलमान और ईसाई के नाम से तीन कॉलम होते थे। सिख, बौद्ध, जैन, ईरानी (पारसी को ईरानी कहा जाता था) की गणना भी अलग होती थी। सन् 1900 तक जनगणना इसी हिसाब से चलती रही। इस जनगणना में ब्रिटिश सरकार की यह इच्छा थी कि भारत में विभिन्न मजहबों के लोगों की संख्या कितनी है, यह जान लिया जाए ताकि आगे की रणनीति बनाने में आसानी रहे। अब तक भारत में विदेशी मूल के मजहबों को मानने वालों की संख्या भी अच्छी खासी हो गई थी। विदेशी मूल के तीन मजहब ही भारत में पैर पसार रहे थे। इस्लाम पंथ, एशिया पंथ और मसीही पंथ (क्रिश्चियन)। तीनों का भारत में आगमन मोटे तौर पर आक्रमणकारियों के माध्यम से हुआ था। अरबों, तुर्कों व मुगलों के लंबे शासन काल में इस्लाम पंथ में मतांतरित हो जाने वाले भारतीयों की संख्या भी अब तक काफी हो गई थी। इस्लाम पंथ में मतांतरित भारतीयों के अतिरिक्त एटीएम, यानी विदेशी मूल के मुसलमान भी थे। उस समय ईसाइयों की गिनती तो इस देश में नाममात्र ही थी। केरल में कुछ सीरिआई ईसाई थे जिन्होंने कभी अपने देश में इस्लामी आक्रमणों से भाग कर इस देश में शरण ले रखी थी। इसी प्रकार यूरोपीय जातियों को भी भारत के कुछ हिस्सों पर राज करते हुए लगभग सौ साल हो ही गए थे। इसलिए ईसाई पंथ में मतांतरित भारतीयों की भी कुछ संख्या थी ही। कुछ एंग्लो इंडियन थे। लेकिन इनकी संख्या उस समय निश्चित ही उंगलियों पर गिनी जा सकती थी।
वर्ष 1900 की जनगणना में ईसाई केवल एक प्रतिशत थे और मुसलमान 21 फीसदी थे। मुसलमानों में विदेशी मूल के मुसलमान, देसी मुसलमान और शिया मजहब को मानने वाले भी शामिल थे। इन दोनों के अतिरिक्त शेष भारतीय हिंदू हैं। लेकिन यह भी साफ हो गया था कि ब्रिटिश सरकार ने इस जनगणना में हिंदू शब्द को भौगोलिक न मान कर उसे मजहब का द्योतक शब्द मान लिया था। लेकिन 1885 में कांग्रेस और 1905 में मुस्लिम लीग के गठन से देश में कहीं-कहीं कुछ निकायों में भारतीयों को हिस्सा देने के लिए कानून बनने शुरू हो गए थे। यह चयन मतदान द्वारा होता था। यह ठीक है कि मतदान का अधिकार कुछ गिने-चुने भारतीयों को ही दिया जाता था, लेकिन एक नई पद्धति की शुरुआत तो थी ही। 1909 के अधिनियम में तो विधानपालिकाओं में भी चुनाव द्वारा कुछ स्थान भारतीयों द्वारा भरे जाने थे। इसलिए 1910 की जनगणना से पहले मुसलमानों का एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल) मूल का खेमा सक्रिय हो गया। उनकी चिंता थी कि ब्रिटिश सरकार ने इस्लाम पंथी (जिसमें मुसलमान और शिया पंथी दोनों ही शामिल थे) व मसीही के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीयों को हिंदू स्वीकार लिया था। इसका अर्थ परोक्ष रूप से यही था कि हिंदू इस देश की भौगोलिक पहचान को ही इंगित करता है। ब्रिटिश सरकार ने मुसलमान और मसीही समुदाय को तो इस भौगोलिक पहचान से अलग कर ही दिया था। लेकिन यदि हिंदू को भी खंडित किया जा सके तो भारत को मानसिक तौर पर घायल करना आसान हो सकता था। 1910 की गणना से पहले एटीएम और ब्रिटिश सरकार ने इस संबंधी पूरी रणनीति तैयार कर ली थी। उसकी शुरुआत आगा खान के ज्ञापन से होती है जो उसने जनगणना के बारे में सरकार को दिया था। लेकिन हिंदू के भौगोलिक आधार को आगे बांटने की जरूरत ब्रिटिश सरकार को क्यों हुई, इसकी चर्चा भीमराव अंबेडकर ने की है। उनका मानना है कि इस प्रश्न का उत्तर मुसलमानों द्वारा आगा खान के नेतृत्व में 1909 में ब्रिटिश सरकार को दिए गए प्रतिवेदन में से मिलेगा।
यह मैमोरंडम आगा खान ने उस समय के वायसराय लार्ड मिंटो को दिया था। आगा खान ने इस प्रतिवेदन में लिखा था कि 1900 की जनगणना में मुसलमानों की संख्या 62 मिलियन है, जो कि भारत की कुल जनसंख्या का 1/5 प्रतिशत से लेकर 1/4 प्रतिशत के बीच ठहरता है। आगा खान ने आगे कहा कि जनगणना में से असभ्य समुदाय के लोगों, जिन्हें छिटपुट मजहब और एनिमिस्ट के नाते दर्ज कर रखा है, को निकाल दिया जाए। दूसरे, उन लोगों को जिन्हें हिंदू मान लिया गया है, लेकिन वे हिंदू नहीं हैं, भी निकाल दिया जाए तो देश में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या का प्रतिशत और भी बढ़ जाएगा। अंबेडकर ने वह पूरा मैमोरंडम अपनी किताब ‘अछूत कौन थे’ में दिया है। लेकिन इस प्रतिवेदन का अगला भाग चौंकाने वाला है, जिसमें आगा खान कहते हैं कि जब भारतीयों को किसी भी संस्थान में उनकी संख्या के बल पर हिस्सेदारी दी जाए तो मुसलमानों को हिस्सेदारी का आधार उनकी संख्या को न माना जाए, बल्कि यह आधार रखा जाए कि मुसलमानों ने ब्रिटिश साम्राज्य की कितनी सेवा की है। आज भी यह शक जाहिर किया जाता है कि आगा खान ने यह प्रतिवेदन स्वयं दिया था या फिर अंग्रेजों ने उसे ऐसा प्रतिवेदन देने के लिए कहा था। ब्रिटिश सरकार ने शायद तभी से देश को विभाजित करने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। अंबेडकर ने प्रश्न को आगे और बढ़ाया है। एक बात तो स्पष्ट है कि आगा खान की पिटीशन से वायसराय इतना तो समझ गए थे कि प्रथमया, हिंदू को उसकी भौगोलिकता से काट कर मजहब से पहले ही जोड़ दिया गया है, अब कृत्रिम रूप से उसकी जनसंख्या कम करने का भी अवसर है।
आगा खान ने यह पिटीशन दी थी या ली गई थी, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन अंग्रेज सरकार ने उसे सही रूप से पकड़ लिया था। इसका तरीका उन्होंने 1910 की जनगणना में निकाला। उन्होंने हिंदू को आगे हिंदू, जनजाति और अछूत नाम से तीन हिस्सों में बांट दिया। उस समय कांग्रेस ने इसका विरोध किया था। लेकिन ब्रिटिश नीति कामयाब रही और 1947 में देश विभाजित हो गया। अंग्रेजों के चले जाने के बाद कुछ लोगों ने मांग की थी कि जनगणना जाति के आधार पर की जाए, लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरु इसके पीछे छुपी भावना को समझ गए थे, इसलिए उन्होंने इस मांग को ठुकरा दिया था। 




लेकिन आज नेहरु की हवेली पर जिन लोगों का कब्जा हो गया है, वे इटली के मैकियावली के सिद्धांतों पर चलते हुए किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए वे आज 2024 में उसी नीति को फिर से जीवित करना चाहते हैं, जो ब्रिटिश सरकार ने शुरू की थी। राहुल गांधी सलाहकारों की दी हुई स्क्रिप्ट पढऩे की बजाय यदि बाबा साहेब अंबेडकर का संविधान सभा के अंतिम सत्र में दिया गया उनका भाषण पढ़ लें तो वे देश की ज्यादा सेवा करेंगे।

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