...ताकि अक्षुण्ण रहे आज़ादी
इलमा अजीम
हम आज जो स्वतंत्रता की खुली हवा में सांस ले रहे हैं, वह अनमोल है। जिसकी रक्षा करना हर भारतीय का पहला कर्तव्य है। किसी भी लोकतंत्र में समाज के अंतिम व्यक्ति को न्याय दिलाना पहली प्राथमिकता होती है। निस्संदेह, देश ने 1947 में राजनीतिक आजादी हासिल की थी। अकसर कहा जाता है कि आजादी के बाद हमारी लड़ाई देश में आर्थिक आजादी और सामाजिक न्याय हासिल करने के लिये होनी चाहिए। लेकिन यह भी हकीकत है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम आर्थिक आजादी व सामाजिक न्याय के लक्ष्य हासिल नहीं कर पाये। देश में तेजी से बढ़ती अमीर-गरीब की खाई बड़ी चिंता का विषय है। दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं के देश भारत में बेरोजगारी की ऊंची दर नीति-नियंताओं की विफलता को दर्शाती है। कैसी विडंबना है कि रोजगार की तलाश में विदेशों में भटक रहे युवाओं को दलालों ने रूस-यूक्रेन युद्ध में झोंक दिया है। हर हाथ को काम न मिले यह हमारे सत्ताधीशों की विफलता ही कही जाएगी। वहीं दूसरी ओर हम अपने मौलिक अधिकारों की तो बात करते हैं लेकिन अपने मौलिक कर्तव्यों की बात भूल जाते हैं। यह शिक्षा स्कूल-कॉलेजों से ही दी जानी चाहिए ताकि युवा जागरूक व जिम्मेदार बनें। निस्संदेह, समय के साथ देश में साक्षरता का स्तर बढ़ा है। सवाल है कि वे लोग कौन हैं जो चुनाव के दौरान छोटे-छोटे प्रलोभनों के लिये अपना वोट बेच देते हैं। वे कौन हैं जो देश की प्रगति के बजाय जाति-धर्म के आधार पर वोट देते हैं। कौन हैं जो क्षेत्रवाद को अपने मताधिकार से बढ़ावा देते हैं। कौन हैं जो चुनावी प्रक्रिया के दौरान मुफ्त की रेवड़ियों को अपना लक्ष्य बनाते हैं। निस्संदेह, सेवाओं व वस्तुओं का यह प्रलोभन हमारी व्यवस्था को पंगु बनाता है। हमारा राष्ट्रवाद का जज्बा जापान जैसा ऊंचे दर्जे का होना चाहिए। यदि हम सजग, सतर्क और सचेत रहेंगे तो दागी जनप्रतिनिधि संस्थाओं में नहीं पहुंच सकते हैं। आज हम आजादी की हवा में सांस ले रहे हैं, लेकिन इस आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखने को त्याग-तपस्या की आज भी जरूरत है। हमारी उदासीनता और राजनीतिक-सामाजिक विद्रूपताओं की अनदेखी की कीमत हमें ही चुकानी पड़ती है। विपक्ष का दायित्व है कि वह जनता को सजग करे और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सचेत करे। वहीं राजनीतिक दलों को उन विभाजनकारी मुद्दों से परहेज करना चाहिए जो समाज में विघटन को बढ़ावा दें।
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