शिक्षा जगत के लिए चुनौतियां

- डा. वरिंदर भाटिया
एक बार फिर हमने आजादी की सालगिरह मनाई। आजादी के बाद शिक्षा, खास तौर पर उच्च शिक्षा को लेकर हम कहां खड़े हैं, यह विचारना जरूरी है। शिक्षा राष्ट्र की समृद्धि का एकमात्र जरिया है। शिक्षा वो सूत्र है, जिसे देश के आजाद होते ही लीडरशिप ने समझ लिया और इस पर काम किया। आजादी के वक्त देश की आबादी 36 करोड़ थी, मगर साक्षरता सिर्फ 18 परसेंट। वहीं, महिलाओं के मामले में हालात और खराब थे। देश की आजादी के समय 9 परसेंट से भी कम महिलाएं पढ़ी-लिखी थीं। यानी 11 में से सिर्फ एक महिला पढ़-लिख सकती थी। आजादी के वक्त देश में सिर्फ डेढ़ लाख स्कूल थे, आज देश में स्कूलों की संख्या बढक़र बीस लाख से ज्यादा हो गई है। इन स्कूलों में करीब 24 करोड़ छात्र पढ़ते हैं। स्कूली शिक्षा में सरकार और निजी क्षेत्र ने भी बहुत निवेश किया है। हालांकि इन दिनों कई कारणों से देश के अनेक सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, और हर व्यक्ति अपने सामथ्र्य के हिसाब से अपने बच्चों को पब्लिक यानी निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।
चिंता की बात यह भी है कि नई शिक्षा नीति में खास तौर से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक सुधार के प्रावधान की बातें बहुत हो रही हैं, लुभावनी योजनाएं बन रही हैं, लेकिन इसको लागू करने में अड़चनों को तुरंत दूर किया जाना जरूरी होगा। यह भी हो सकता है कि साधनों के अभाव एवं दक्ष-प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण हम नई शिक्षा नीति को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पा रहे हैं। बेहतर हो कि नई शिक्षा नीति के जरिए मियारी स्कूली शिक्षा देने का हमारा लक्ष्य भटकना नहीं चाहिए।
जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है, तो उच्च शिक्षा हर क्षेत्र में रिसर्च और डेवलपमेंट के रास्ते खोलती है। आजादी के बाद अब तक बनी सरकारें जानती थी कि हायर एजुकेशन पर फोकस किए बिना ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में झंडे नहीं गाड़े जा सकते।


इस पर भी बहुत काम हुआ है। आजादी के वक्त देश में सिर्फ 20 यूनिवर्सिटीज और 404 कॉलेज थे। आज इनकी संख्या में कई गुना इजाफा हो चुका है। अतीत में हायर एजुकेशन में क्वांटिटी पर ज्यादा और क्वालिटी पर फोकस कम रहा है। आज भी थोक के भाव से यूनिवर्सिटीज खुली हैं, मगर पढ़ाई अच्छी नहीं हो रही है। कुछ इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थिति और भी बुरी है। निजी संस्थाओं और उद्यमियों ने कॉलेज तो खोल दिए हैं, मगर कई जगह फैकल्टी अच्छी नहीं रखी जा रही है। कई संस्थानों में अच्छी लैब्स भी नहीं हैं।
आज हमारे सामने सैकड़ों निजी इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसे भी हैं जहां फीस निजी स्कूलों से कम है। हालांकि स्कूली शिक्षा में कई जगह निजी क्षेत्र ने अच्छा काम किया है, मगर हायर एजुकेशन में अभी बहुत काम होना बाकी है। वर्तमान में हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो धीरे-धीरे ग्लोबल व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। इस समय सभी शिक्षा संस्थानों की जिम्मेदारी ज्यादा है, जिन्हें इस दिशा में अभी काफी काम करना है। शिक्षण संस्थाओं के प्रसार की दिशा में भले ही हम प्रगति कर रहे हों, लेकिन यह साफ है कि शिक्षा डिजिटल तकनीक माध्यम से देने में हम असफल रहे हैं। आने वाले समय में विकसित भारत को निर्मित करने का मुख्य आधार शिक्षा ही है। इसके लिए हमें आधुनिक शिक्षा एवं शिक्षकों को समग्र दृष्टि से परिपक्व बनाना होगा, तभी शिक्षा की कमियां दूर हो सकंेगी। हमें अपने छात्रों को सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना है। हमें यह देखना होगा कि देश के छात्र दुनिया में कहीं भी काम करने के योग्य हों। यह कैसे संभव हो सकेगा? इस बार की आजादी की इस वर्षगांठ पर हमारा शिक्षा जगत और सरकारें इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करें।

शिक्षा में गुणवत्ता का होना जरूरी है। इसके लिए हमें शिक्षकों को अध्यापन से इतर कार्यों से विमुक्त करना होगा। अभी तक अध्यापकों की ड्यूटी चुनावी कार्यक्रमों के निपटान, मिड डे मील का प्रबंधन, सर्वेक्षण कार्यों तथा कई और सरकारी कार्यों के निपटान में लगाई जा रही हैं। इससे अध्यापकों के समक्ष यह संकट उत्पन्न हो जाता है कि सिलेबस का अध्यापन पूरी तरह कैसे करवाया जाए। वैसे शिक्षा केवल सिलेबस के अध्यापन तक सीमित विषय नहीं है। शिक्षा का लक्ष्य छात्र को इस काबिल बनाना है कि वह अपने लिए तथा अपने परिवार के लिए आजीविका का प्रबंध कर सके, और साथ में शिक्षा का मतलब यह भी है कि इसे ग्रहण करने के बाद शिक्षार्थी सच को सच तथा झूठ को झूठ बोलने की हिम्मत दिखा सके। शिक्षा का लक्ष्य छात्र को एक कंपलीट पर्सन बनाना होता है। छात्र का नैतिक कल्याण और उसमें मानवीय सद्गुणों का प्रत्यारोपण भी शिक्षा का लक्ष्य है।

इस काम को छात्रों, अभिभावकों तथा अध्यापकों के आपसी सहयोग से पूरा किया जा सकता है। सद्गुण संपन्न नागरिक बनाना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। शिक्षा जगत के लिए एक चुनौती यह भी है कि निजी शिक्षण संस्थानों की उपयोगिता को स्वीकार तो किया जाए, लेकिन इनके कारण शिक्षा इतनी महंगी न हो जाए कि आम छात्र, गरीब छात्र तक इसकी पहुंच ही न हो। महंगी शिक्षा के कारण गरीब छात्रों का शिक्षा से वंचित रह जाना भारतीय शिक्षा जगत की एक बड़ी चुनौती है। शिक्षा का बढ़ता व्यापारीकरण एक बड़ी चुनौती है। इस विषय पर व्यापक चिंतन की जरूरत है, ताकि शिक्षा गरीब छात्र तक भी सुलभ रहे। ऐसा भी देखने में आता है कि निजी शिक्षण संस्थान छात्रों के अभिभावकों से भारी फीस व डोनेशन आदि वसूल करते हैं। निजी स्कूल छात्रों को महंगे दामों पर शिक्षण सामग्री व वर्दी आदि भी बेचते हैं। कापियों, पेंसिल व अन्य शिक्षण सामग्री के नाम पर भारी वसूली होती है, जिस पर रोक लगनी चाहिए। आज गरीब से गरीब परिवार तक, सभी अपने बच्चों को पब्लिक स्कूलों में शिक्षा दिलाना चाहते हैं, लेकिन इन स्कूलों के भारी-भरकम खर्चों को देखते हुए कई बार गरीब अभिभावक इन स्कूलों में अपने बच्चों को दाखिल नहीं करवा पाते हैं। 


शिक्षा जगत की एक चुनौती यह भी है कि सरकारों के शिक्षा पर व्यापक खर्च के बावजूद सरकारी स्कूलों में दाखिल होने वाले छात्रों की संख्या निरंतर घट रही है, जिसके परिणामस्वरूप प्रचलन यह बनता जा रहा है कि कम छात्र संख्या वाले स्कूलों को या तो बंद किया जा रहा है, अथवा उन्हें अन्य स्कूलों में मर्ज किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को पर्याप्त वेतन भी मिलता है, लेकिन इसके बावजूद इन स्कूलों के वार्षिक परिणाम उत्साहजनक नहीं हैं। ऐसी ही कई अन्य चुनौतियां भारतीय शिक्षा जगत के सामने हैं, जिनका जल्द से जल्द समाधान होना चाहिए। ये चुनौतियां ऐसी नहीं हैं कि समाधान न हो सके, बस, प्रयासों की जरूरत है।
(कालेज प्रिंसिपल)

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