बढ़ते शहरीकरण के बड़े नुकसान
- राजेंद्र प्रसाद शर्मा
वर्तमान में दुनिया की कुल आबादी में से 56 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगी है। गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है। यह प्रवृत्ति जारी रही तो 2050 तक शहरी आबादी अपने वर्तमान आकार से दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी। शहरीकरण के लाभ हैं, तो नुकसान भी कम नहीं। जब भी शहरों में कोई नई कॉलोनी विकसित होती है तो हमें यह स्वीकारना ही होगा कि किसी न किसी गांव की कुर्बानी हुई है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि शहरीकरण को विकास का पैमाना माना जाता है। शहरों में गांवों की तुलना में अधिक साधन, सुविधाएं, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा दूसरे शब्दों में आधारभूत सुविधाएं अधिक होती हंै। यह भी सच है कि ये सुविधाएं सभी को नसीब भी नहीं होतीं। रोजगार के लिए गांवों से शहरों में आने वाले बहुत सारे लोगों को कच्ची बस्तियों, चालों या एक से दो कमरें की मकानों में किराए पर रहने को बाध्य होना पड़ता है। शहरों में बुनियादी सुविधाओं के बावजूद सामािजक और पर्यावरणीय क्षेत्र पर खासा नकारात्मक प्रभाव देखा जा सकता है। शहरों में रहना दूभर ही होता जा रहा है।
दरअसल, शहरीकरण के समय अन्य पहलुओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता है। प्राकृतिक जल स्रोत समाप्त कर दिए जाते हैं तो पानी के संग्रहण के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। आबादी के घनत्व के कारण वातावरण प्रभावित होता है। जिस तरह से पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं से दो चार होना पड़ रहा है और मौसम में बदलाव देखा जा रहा है, उसके लिए शहरीकरण भी जिम्मेदार है। कंक्रीट के जंगलों के कारण तापमान नित नया रेकार्ड बनाता जा रहा है, वहीं पेयजल की समस्या, प्रदूषित वायु, सड़कों पर निर्बाध आवागमन की समस्या, अत्यधिक आवागमन साधनों के कारण प्रतिदिन की जाम की समस्या, नित नई बीमारियों का प्रकोप और अपशिष्टों के निस्तारण की समस्या विकट हो रही है। बिजली की अत्यधिक मांग के कारण आए दिन विद्युत संकट और मरीजों की संख्या बढऩे से अस्पतालों पर बढ़ता दबाव भी देखा जा सकता है। शहरों में शुद्ध हवा और पानी तो अतीत और कल्पना की बात हो चुकी है।
शहरीकरण के कारण हर जरूरत का बाजारीकरण हो गया है। शिक्षा का क्षेत्र हो या स्वास्थ्य का, हर जगह व्यापार हावी हो गया है। फास्ट फूड स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यह बात जानते हुए भी लोग फास्ट फूड के दीवाने हो रहे हैं। दरअसल, शहरीकरण के चलते रिश्ते नाते, खान-पान, रहन-सहन सब कुछ बदल गया है और उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। यदि नियोजित तरीके से शहरीकरण होता है, शहरों का विस्तार होता है, आबादी के घनत्व को ध्यान में रखा जाता है, जहां नई कॉलोनी विकसित की जाती है वहां आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है और प्राकृतिक स्रोतों को को संरक्षित किया जाता है तो समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकता है। पर ऐसा हो नहीं रहा है। प्रबुद्ध नागरिक इसको लेकर चिंतित रहते हैं और अनियोजित शहरी विकास को नियोजित विकास का रूप दिलाने के लिए न्यायालयों तक का दरवाजा खटखटाते हैं। इसके बावजूद अनियोजित शहरीकरण बढ़ रहा है।
शहरीकरण के साइड इफेक्ट हमारे सामने आने लगे हैं। ऐसे में नीति निर्माताओं को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करना होगा। शहरों के विस्तार की बजाय गांवों- कस्बों के विकास पर ध्यान देना होगा। वहां रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर व्यवस्था करके ग्रामीण आबादी को शहरों की ओर पलायन से रोका जा सकता है। इससे शहरों पर दबाव भी कम होगा और पर्यावरण पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव में भी कुछ हद तक कमी आएगी।
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