जम्मू-कश्मीर की आगे की राह

- कुलदीप चंद अग्निहोत्री

जम्मू कश्मीर विधानसभा के लिए चुनाव सितम्बर 2024 तक सम्पन्न हो जाएंगे, ऐसा उच्चतम न्यायालय के फैसले से ही स्पष्ट हो गया था। इसके लिए चुनाव आयोग ने तैयारियां भी प्रारम्भ कर दी हैं। राज्य में हवा का रुख क्या है, इसका थोड़ा बहुत संकेत लोकसभा के लिए हुए चुनाव परिणाम से भी मिल ही जाता है। वैसे हवा का रुख कब बदल जाए, इसका अन्दाजा तो मौसम विज्ञानी भी नहीं लगा पाते। लोकसभा में जम्मू कश्मीर की पांच सीटें हैं। इनमें से जम्मू और ऊधमपुर तो जम्मू संभाग में आती हैं और श्रीनगर व बारामूला कश्मीर संभाग में आती हैं। तीसरी सीट अनंतनाग-ृराजौरी है जो जम्मू और कश्मीर दोनों संभागों में बंटी हुई है। जम्मू संभाग की दोनों सीटें भाजपा ने लगातार तीसरी बार जीत ली हैं। लेकिन कश्मीर संभाग की दोनों सीटों के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले ही कहे जाएंगे। वैसे श्रीनगर, बारामूला और अनंतनाग की तीनों सीटों पर पहली बार कुल मिला कर 50.86 फीसदी मतदान हुआ। 2019 में यह मतदान 19 फीसदी के आसपास था।
सबसे पहले श्रीनगर सीट की बात ही की जाए। इस सीट में श्रीनगर के अतिरिक्त बडगाम, गांदरबल, पुलवामा और शोपियां जिले शामिल हैं। यह सीट शेख मोहम्मद अब्दुल्ला परिवार का अभेद्य किला मानी जाती थी। इस सीट पर अब तक हुए तेरह चुनावों में से दस बार नेशनल कॉन्फ्रेंस को ही जीत मिली है। यहां से फारूक अब्दुल्ला, उनके माता जी बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला बार बार जीतते रहे हैं। लेकिन इस बार अब्दुल्ला परिवार की ओर से इस सीट पर कोई मैदान में नहीं था।
नेशनल कान्फ्रेंस की ओर से शिया पंथ से ताल्लुक रखने वाले बडगाम के युवा नेता आगा रुहुल्लाह मेहंदी को मैदान में उतारा था। रुहुल्लाह के पिता की हत्या आतंकवादियों ने 2000 में गुटों की भीतरी कलह के चलते कर दी थी। मेहदी का मुकाबला इस बार पीडीपी के वहीदुर रहमान पारा और अपनी पार्टी के मोहम्मद अशरफ मीर से था। भारतीय जनता पार्टी का कोई प्रत्याशी नहीं था, लेकिन पार्टी परोक्ष रूप से अपनी पार्टी के पक्ष में दिखाई दे रही थी। जहां तक मतदान का सवाल है, श्रीनगर सीट पर 1996 में 40.94 फीसदी मतदान हुआ था, जो 2019 तक आते आते 14.43 फीसदी पर सिमट गया था। कहा यह भी जाता है कि यहां के राजनीतिक दल ज्यादा पैसा इस बात पर खर्च करते थे कि मतदान का बायकाट करवा दिया जाए, ताकि केवल कुछ हजार वोट से ही लोकसभा पहुंचा जा सके। लेकिन इस बार इस सीट पर 38 फीसदी से भी ज्यादा मतदान हुआ।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के रुहुल्लाह मेहदी को 3.56 लाख (52.8 फीसदी) वोट मिले जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी पीडीपी के प्रत्याशी को 1.68 लाख (24.9 फीसदी) वोट मिले। अपनी पार्टी के मोहम्मद अशरफ मीर को मात्र 65954 वोट मिले। गुलाम नबी आजाद ने अपनी अलग डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी बना कर अपना प्रत्याशी भी मैदान में उतारा था, लेकिन वह 15104 वोट ही ले पाया।
यह भी पहली बार ही हुआ है कि श्रीनगर से कोई शिया पंथ का प्रत्याशी लोकसभा पहुंचा हो। बारामूला लोकसभा क्षेत्र की कहानी इससे भी ज्यादा दिलचस्प है। यहां 58.17 फीसदी मतदान हुआ जो राज्य में सबसे ज्यादा मतदान का रिकॉर्ड है। यहां नेशनल कान्फ्रेंस के शाही परिवार के वारिस उमर अब्दुल्ला को एक आजाद उम्मीदवार अब्दुल रशीद शेख ने बुरी तरह पराजित किया। रशीद को 472481 (45.7 फीसदी) वोट मिले जबकि उमर अब्दुल्ला को 268339 (25.95 फीसदी) से ही संतोष करना पड़ा। पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद गनी लोन को 173239 (16.76 फीसदी) वोट मिले।
कहा जाता है कि लोन की सहायता भारतीय जनता पार्टी भी कर रही थी। पीडीपी का प्रत्याशी तो कुल मिलाकर 27488 पर ही सिमट गया। जीतने वाला प्रत्याशी रशीद पिछले पांच साल से धन संबंधी मामलों के हेरफेर के चलते जेल में बंद है। रशीद पहले सज्जाद गनी लोन की पीपुल्स कान्फ्रेंस में ही था, लेकिन उसने बाद में अपनी अवामी इत्तिहाद पार्टी बना ली थी। अनन्तनाग-राजौरी सीट कश्मीर और जम्मू संभाग की सांझी सीट है। बारामूला सीट ने पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को ठिकाने लगाया, तो अनन्तनाग ने दूसरी पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को धूल चटा दी। इस सीट पर मुख्य लड़ाई नेशनल कान्फ्रेंस के मियां अलताफ अहमद और पीडीपी की महबूबा मुफ्ती के बीच थी। मियां जी को 521836 वोट मिले और महबूबा मुफ्ती को 240042 वोट हासिल हुए। अपनी पार्टी के मिनहास को 42195 और गुलाम नबी आजाद की आजाद पार्टी को 25561 वोट मिले। कुल मिला कर इस सीट पर 53 फीसदी मतदान हुआ जो अब तक का रिकॉर्ड मतदान है।
मियां अलताफ अहमद घाटी की सूफी परम्परा के एक सिलसिले से ताल्लुक रखते हैं। वे घाटी में इस सिलसिले के मुखिया कहे जा सकते हैं, जो उनके खानदान में पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। जब 1931 में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने घाटी में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस शुरू की थी तभी मियां अल्ताफ अहमद के दादा मियां निजामुद्दीन ने भी कश्मीर घाटी में गुज्जर-जाट कान्फ्रेंस का गठन किया था। इस सीट पर लड़ाई ने एटीएम बनाम डीएम का रूप ही ले लिया था। जहां तक जम्मू संभाग की दो सीटों जम्मू और उधमपुर का ताल्लुक है, इन दोनों सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल कर ली है। इन दोनों सीटों पर न तो पीडीपी ने और न ही नेशनल कान्फ्रेंस ने अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। ये दोनों पार्टियां अपने आप को इंडी गठबंधन का हिस्सा ही मानती हैं, इसलिए वे मिल कर इन दो सीटों पर कांग्रेस का ही समर्थन कर रही थीं। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस जीत के आसपास भी नहीं पहुंच सकी।
ऊधमपुर से भाजपा के डा. जतिन्द्र सिंह को 571076 वोट मिले और कांग्रेस के चौधरी लाल सिंह को 446703 वोट मिले। इसी प्रकार जम्मू सीट से भाजपा के जुगल किशोर शर्मा को 687588 और कांग्रेस के रमन भल्ला को 552090 वोट हासिल हुए। जम्मू कश्मीर में गुलाम नबी आजाद ने भी अपनी पार्टी बना कर किस्मत आजमाने की कोशिश की थी। लेकिन आजाद को बुरी तरह शिकस्त का मुंह देखना पड़ा। सबसे चौंकाने वाली जीत तो अनन्तनाग सीट से मियां अलताफ अहमद को मिली। मियां साहिब गुज्जर बकरवाल बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं।



उनका मुकाबला सैयद बिरादरी की महबूबा मुफ्ती से था। सैयदों के प्रति आम कश्मीरी का भाव पूजा के समान ही होता है। गुज्जरों की तो बात ही क्या, कश्मीरी भी सैयदों के आगे सिजदा करते हैं। सैयदों की विवाह शादी कश्मीरियों से नहीं होती। किसी सैयदा के आगे एक गुज्जर मुकाबले में आ गया है, यही सबसे हैरानी की नहीं, बल्कि हौसले की बात थी। मियां जी यह हौसला दिखा रहे थे। इससे अनन्तनाग से लेकर राजौरी पुंछ के गुज्जर बकरवालों तक में एक नया जोश देखा जा सकता था। महबूबा मुफ्ती के पास सैयद होने के अतिरिक्त एक दूसरा तगमा भी था। वह राज्य की मुख्यमंत्री भी रह चुकी थी। मियां जी की एक दूसरी कमजोरी थी। वे सम्प्रदाय के हिसाब से शिया थे जबकि उनके मतदाता इस्लाम को मानने वाले थे, जो सुन्नी कहलाते हैं। लेकिन मतदाताओं ने मजहबी भेदभाव की ये दीवारें तोड़ कर सैयदा के मुकाबले एक गुज्जर को और सुन्नी के मुकाबले एक शिया को भारी बहुमत से जिता दिया।
जम्मू कश्मीर के दोनों राज परिवार ध्वस्त हो गए। शेख अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार का कोई भी सदस्य लोकसभा में नहीं होगा। यह घटना राज्य के इतिहास में पहली बार हुई है। क्या इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि विधानसभा के आने वाले चुनावों में इन दोनों परिवारों की पुश्तैनी पार्टियों के भीतर भी नेतृत्व परिवर्तन की राह खुलेगी।

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