कबीर को माने पर कबीर की भी माने

- कृष्ण कुमार निर्माण
अलबत्ता तो जिसका भी दिवस होता है, उसे बेचारा माना जाना चाहिए? कोई भी दिवस मनाना, जयंती मनाना प्रतीकात्मक होता है ताकि कुछ क्रियात्मक किया जा सके। मतलब यह है कि जयंती इसलिए मनाई जाती है कि जिनकी जयंती मना रहे हैं, उनसे प्रेरणा ले सकें और न केवल खुद के जीवन को सुधारने के लिए बल्कि समाज और राष्ट्र को बेहतर बनाने के लिए भी।
यहाँ याद रखिए कि यदि कुछ क्रियात्मक नहीं होता है तो फिर दिवस का मनाना,जयंती का मनाना, ना मनाने के बराबर हो जाता है मसलन यह एक तरह की औपचारिकता भर होता है।हद तो तब हो जाती है जब चंद लोग/समूह जयंती के बहाने समाज का दुरुपयोग करते हैं और अपने निजी हित साधने का घिनौना कार्य करते हैं।खुद को इसका/उसका अनुयायी होने का ढोंग करते हैं।इस तरह का कार्य समर्पण नहीं बल्कि नीचता कहलाता है।जिस संत शिरोमणि साहब कबीर ने ढोंग का पर्दाफाश किया,उन्हीं के नाम पर ढोंग ठीक नहीं है।
कबीर तो लाजबाब हैं, कबीर जैसा कोई दूसरा ना हुआ है और सम्भवतः ना होगा।। पहली बात ध्यान से समझ लीजिए कि कबीर होना ईश्वरत्व को पाना है। कबीर होना सम्पूर्ण मानवता होना है।कबीर होना हर तरह के वैर भाव से तिरोहित हो जाना है।कबीर होना नफरत का समूल नाश है।



कबीर होना निखालिस प्रेम है।कबीर होना भक्ति की पराकाष्ठा है जहाँ भक्त को भगवान की नहीं बल्कि खुद भगवान को भक्त की जरूरत महसूस होती है तभी तो स्वयं भगवान कबीर के पीछे-पीछे चलते हैं।कबीर होना अपने आप में अनूठा है,विलक्षण है। कबीर को पढ़ना अलग बात है और कबीर को समझना अलग बात और कबीर हो जाना अलग बात है।
कबीर को जीना सर्वोत्तम बात है क्योंकि कबीर हर व्यक्ति के लिए आशा के द्वार खोलते हैं।कबीर जैसा सीधा,साधारण व्यक्ति खोजना बड़ा मुश्किल है और कबीर जैसा विद्वान खोजना भी बेहद कठिन है।सरल इतने कि खुद सरलता शरमा जाए और बौद्धिक इतने कि बड़े-बड़े प्रकांड विद्वान लज्जित हो जाएं।अब सवाल यह है कि इतना साधारण व्यक्ति ईश्वर तक पहुँच सकता है,तो निसंदेह हर कोई पहुँच सकता हैं।कबीर ने प्रमाणित किया कि सत्य को जानने के लिए,सत्य को जीने के लिए पढ़ा-लिखा होने की जरूरत नहीं है। किसी धर्म विशेष का होने की जरूरत नहीं है। किसी जाति विशेष में पैदा होने की जरूरत नहीं है। सब कुछ त्याग करने की जरूरत नहीं है बल्कि सब कुछ के अंदर रहकर ईश्वर को न केवल पाया जा सकता है बल्कि ईश्वर ही हुआ जा सकता है। और मजे की बात है कि सत्य का ज्ञान पाने के लिए अमीरी की भी जरूरत नहीं है और फकीरी की भी जरूरत नहीं है।
जरूरत है बस तमाम तरह के उहापोह से ऊपर उठने की,जो बोझ हमने ज्ञान, धर्म, जाति, अहम, ओहदे, रंग, नस्ल का लाद रखा है, उसे उतार फेंकने की और एकदम निरोल, निष्पक्ष, निरपेक्ष, निर्विकार भाव से लबरेज होने की जो इस अवस्था तक पहुँच जाए कि ना काहुँ से दोस्ती,ना काहुँ से बैर,सबकी मांगे खैर। हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या,रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या,जो बिछड़े हैं पियारे से भटकते दर-ब-दर फिरते,हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या।



आइए! दिखावटी बातों से ऊपर उठकर अगर हम चाहते हैं कि संत सर्व समाज के होते हैं और मानवता के होते हैं,तो संतों की जयंतियाँ तो मनाएं ही मगर संतों की बातें मानना भी शुरू मार दें,तो सोने से सुहागा होगा।
(स्वतन्त्र लेखक, शिक्षविद करनाल)

No comments:

Post a Comment

Popular Posts