सावधान! आप भारतीय रेल में सफर कर रहे हैं

- विवेकानंद विमल
अकसर जब हम किसी यात्रा पर होते है, तो बसों या ट्रेनों में एक चीज अवश्य पढ़ने अथवा सुनने को मिलती है, जिसमें यात्रियों से यह अनुरोध किया जाता है कि यात्रीगण आसपास पड़े किसी भी लावारिश वस्तु से सावधान रहें तथा किसी भी अंजान व्यक्ति से किसी भी प्रकार की खाने या पीने की चीज ना लें, क्योंकि हो सकता है कि इसमें सामने वाले की मंशा ठीक न हो और इसके माध्यम से वो आपको नुकसान पहुँचाना चाह रहे हों। साथ ही साथ एक हिदायत यह भी दी जाती है की यात्रियों को अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करनी चाहिए, उसे किसी और के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिये। लेकिन यात्रा के दैरान केवल इन्हीं कुछ बातों से यात्रियों को आगाह करना मेरे मुताबिक काफी नहीं है।
इसमें एक और वाक्य जोड़ा जा सकता है, खास कर भारतीय रेलगाड़ी व रेल परिसर में इसका लिखा होना तो बिलकुल ही अनिवार्य होना चाहिए तथा यात्रियों को इस बात से आगाह किया जाना चाहिए कि "सावधान! आप भारतीय रेल में सफ़र कर रहे हैं। आपको अपने जान की कीमत समझनी चाहिए और उसका ध्यान स्वयं रखना चाहिए, यह रेल किसी भी वक्त दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है।"



       ऐसा लिखने के पीछे मेरा कतई यह उद्देश्य नहीं है कि मैं भारतीय रेल व्यवस्था की इस दयनीय अवस्था की खिंचाई करू या मजाक उड़ाऊ जिसमें आए दिन रेल हादसे होते रहते हैं, लेकिन इसके माध्यम से इस रेल तंत्र को उस कड़वी सच्चाई से अवश्य अवगत करना चाहता हूँ, जिसे यह व्यवस्था कभी नहीं देखना चाहेगी। 1853 में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान मुंबई और ठाणे के बीच चलकर शुरू हुई यह रेल यात्रा अब तक न जाने कितने बदलाव से गुजर चुकी है। स्टीम इंजिन से शुरू हुआ इसका इतिहास, कोयले, बिजली सहित अब सौर्य उर्जा का भी गवाह बन चुका है। लेकिन इतने वर्षों में जो एक चीज इन रेलों के साथ नहीं बदली वह है इनके दुर्घटनाग्रस्त होने के तरिके। प्रत्येक हादसे का मंजर लगभग एक सा ही होता है, वही पटरी से उतर कर एक दूसरे पर लदी बोगीयां, वही पीड़ा से तड़पते घायल यात्री, वही अपनों को खो कर चीखते चिल्लाते लोग। हर बार नजारा कमोबेश एक ही होता है, बदलता है तो बस रेल का नाम और हादसे का स्थान।
 

         सोमवार को भी कुछ ऐसा ही हुआ जब अगरतला-सियालदाह कंचनजंगा एक्सप्रेस पश्चिम बंगाल में रानीपतरा और चत्तर हाट जंक्शन के बीच एक माला गाड़ी से टक्कर के कारण दुर्घटनाग्रस्त हुई, जिसमें कई मुसाफिर काल के गाल में समा गये। यहां तक कि माला गाड़ी के ड्राइवर और एक्सप्रेस ट्रेन के गार्ड को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। बताया जा रहा है कि स्वचालित सिग्नलिंग प्रणाली के खराब होने के कारण यह हादसा हुआ।
अब सवाल यह है की इतनी बड़ी लापरवाही या गलती का जिम्मेदार कौन है ? आखिर सिग्नल क्यों खराब था? अगर सिग्नल खराब था तो समय रहते कोई वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं बनाई गई थी ?  बार बार यह दुर्घटनाएं होती हैं और हर बार एक नया कारण सामने आ जाता है। हर दुर्घटना के बाद कुछ कर्मचारीयों या संलिप्त अधिकारियों पर ठीकरा फोड़ कर मामला शांत कर दिया जाता है लेकिन इसमें कोई दो राय नही है कि यह दुर्घटना भारतीय रेल व्यवस्था के नाकामी और गैर-जिम्मेदाराना रवैये का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण है।   
 


हालांकि, भारतीय रेल का यूँ पटरियों से उतरना और उसका दुर्घटना ग्रस्त होना कोई नई बात नही है। आंकड़ो पर ध्यान दिया दिया जाए तो पिछले कुछ वर्षों की रिपोर्ट रूह कंपकपाने वाली है। 2011-12 में कुल 115 रेल हादसे हुए, 2013-14 में ये आंकड़ा 117 तक पहुँच गया। 2014-15 में 131 रेल हादसे हुए। वहीं 2016-17 में 104, 2017-18 में 61, 2018-19 में 59, 2019-20 में 57 तथा 2020-21 में 19 रेल हादसे हुए। इन आंकड़ो को देख कर आसानी से समझा जा सकता है कि भारतीय रेल को दुर्घटनाओं का रेल क्यों कहा जाता है और मैंने लेख के शुरुआती पंक्तियों में रेल व रेल परिसर में यात्रियों को आगाह किये जाने की बात क्यों कही थी। हालांकि, इन आंकड़ों के आधार पर निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि हादसों में कमी आई हैं लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि हम अस्वस्थ हो जाएं।
वर्तमान दौर में भारतीय रेल नेटवर्क 1,26,366 किलोमीटर लंबी हैं। इतने बड़े रेल व्यव्स्था का रखरखाव निश्चीत ही आसान नहीं होगा किंतु इसमें सरकारी विफलता भी एक मुख्य कारण हैं। जैसे पटरियों की खराबी के कारण न केवल ट्रेने देरी से चलती है, अपितु हादसों का शिकर भी होती है। माना जाता है कि सालाना 4,500 किमी ट्रैक को नवीनीकृत किया जाना चाहिए, लेकिन वित्तीय बाधाओं के कारण यह संभव नहीं होता। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2021-22 में 58,459 करोड़ रुपये का इस्तेमाल पटरियों के नवीनीकरण के लिए किया जाना था। जबकि सीएजी रिपोर्ट कहती है कि केवल 671.92 करोड़ रुपये या 0.7% धनराशि का ही इसमें इस्तेमाल किया गया ।
 

      ट्रेनों के साथ एक अन्य समस्या यह है कि हादसे का शिकर होने पर इनकी बोगीयाँ एक दूसरे पर चढ़ जातीं है, जिससे नुकसान ज्यादा होता है। इससे बचाव के लिए हाल ही में इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में बने डिब्बों को एलएचबी(लिंक हॉफमैन बुश) डिब्बों से बदलने की योजना बनाई गई। लेकिन माना जा रहा है कि कोचों को पूरी तरह परिवर्तित करने में वर्ष 2040 तक का समय लग सकता है। अब सवाल यह  है कि जबतक ये डिब्बे ट्रेनों में नही लगा दिए जाते तबतक क्या रेल ऐसे ही हादसे का शिकार होते रहेगी और मौत का तांडव रचा जाता रहेगा ? क्या रेलवे के अन्य विभागों की अच्छी देखभाल और रखरखाव कर के इन कोचों के न होने की भरपाई नहीं की जा सकती ? क्या पटरियों की वक्त पर मरम्मत करके इन हादसों को नही रोका जा सकता ? यहाँ इस तंत्र से यह सवाल पूछना भी जायज होगा कि हर साल रेल बजट में यात्रियों की सुविधा और ट्रेनों की सही देखभाल के लिए करोड़ों रुपये दिए जाते हैं। फिर भी हादसे नही रुकते। आखिर क्यों? जिस देश में आम एक्सप्रेस रेल की हालात कितनी ख़राब है, वहाँ सरकारी सपने वाली बुलेट ट्रेन कैसे सरपट दौड़ेगी? जहां 100 किमी की रफ़्तार से ट्रेनें नहीं चल सकतीं, वहां 300 किमी रफ़्तार वाली बुलेट ट्रेन को पटरियां कैसे संभाल पाएंगी?  


           प्रतिदिन 19,000 ट्रेनों में लगभग 23 मिलियन यात्रियों और 2.65 मिलियन टन माल का परिवहन करता यह विश्व का तीसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क आज भगवान भरोसे ही कहा जा सकता है। शायद इसकी वजह यह है की सरकारें लोकलुभावन घोषणाएं तो कर देतीं हैं, पर वह जमीनी हकीकत से कोषों दूर रह जाती है। लेकिन इतना सबकुछ होने के बाद भी शाषण तंत्र और रेल व्यवस्था में सुधार होगी इसकी बस उम्मीद ही की जा सकती। हादसे के बाद केवल मृतकों और घायलों के लिए मुआवजे का ऐलान किये जाने से कुछ नही हो सकता। जरुरत है की इस व्यवस्था में बदलाव हो जिससे ऐसी दुर्घटनाएं होने की नौबत ही न आए।

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