जंगलों का हमदर्द बनने की जरूरत
- प्रताप सिंह पटियाल
पूरे ब्रह्मांड में प्राकृतिक दुनिया की सबसे बेशकीमती व खूबसूरत संपदा पेड़ पौधों से लबरेज वन हैं। प्राचीन काल से वन्य क्षेत्र जंगली जानवरों व मानवता के लिए अनमोल प्राकृतिक संसाधन रहे हैं। देश की सियासत व तमाम इंतजामिया हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में मशगूल थे, मगर हिमाचल सहित कई अन्य राज्यों में जंगल दावानल की चपेट में आ चुके थे। नब्बे प्रतिशत से अधिक जैव विविधता जंगलों में ही पाई जाती है। लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के प्रति जागरूकता तथा पर्यावरण की अहमियत को समझाने के लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर वर्ष पर्यावरण दिवस व पृथ्वी दिवस मनाए जाते हैं। जंगली जीवों के संरक्षण की आवश्यकता को देखते हुए तीन मार्च को ‘विश्व वन्य जीव’ दिवस भी मनाया जाता है। जंगलों व पेड़ों के महत्व के मद्देनजर सन् 1950 से वन महोत्सव तथा वन संरक्षण से संबधित अतरराष्ट्रीय वन दिवस भी मनाया जाता है। पर्यावरण व वन संरक्षण के लिए देश की अदालतों में एक बड़ा कानूनी मसौदा मौजूद है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, वन विभाग, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण व प्रशासन जैसी व्यवस्थाओं के दफ्तरों में अंग्रेजी झाडऩे वाली अफसरशाही तथा सैकड़ों अहलकार विराजमान हैं। राज्यों से लेकर मरकजी हुकूमत तक पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय मौजूद हैं। लेकिन इसे इत्तेफाक कहें या व्यवस्थाओं की नाकामी, हर वर्ष जंगलों में लगने वाली भयंकर आग से निपटने के लिए कोई भी हिकमत-ए-अमली कारगर साबित नहीं हुई। बल्कि वनाग्नि की घटनाओं में हर वर्ष इजाफा हो रहा है।


चुनावी दौर में मुल्क की आवाम गुरबत, जाति, मजहब, मुफ्तखोरी की खैरात, नौकरियां व विकास जैसे मुद्दे उठाने के प्रति जागरूक है। मगर पर्यावरण संरक्षण व जंगलों की भयंकर आग जैसे संवेदनशील मसले पर आवाज कभी बुलंद नहीं होती। लोकसभा चुनावों के दौरान सियासी दलों ने महंगाई व बेरोजगारी जैसे मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। लेकिन पर्यावरण संरक्षण व जलते जंगलों का जिक्र किसी भी सियासी मंच से नहीं हुआ। पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा कभी चुनावी घोषणापत्रों में भी शामिल नहीं हुआ। वनाग्नि के मसले पर सियासी तौर पर भी कभी चर्चा नहीं हुई। भारत में ‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ (एनजीटी) को ‘पर्यावरण अदालत’ कहा जाता है। एनजीटी को उच्च न्यायालय के बराबर शक्तियां प्राप्त हैं। सन् 2010 में एनजीटी की स्थापना का मकसद पर्यावरणीय क्षति व वन संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित मुद्दों को शीघ्रता से हल करने से है। आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड के बाद पर्यावरण न्यायाधिकरण की स्थापना करने में भारत विश्व में तीसरा देश है। दुनिया के सबसे बड़े वन क्षेत्रों वाले दस देशों में भारत भी शामिल है, मगर दावानल की भयंकर चपेट में आने से जंगल, पर्यावरण व जैव विविधता जिस कदर सिसकियां भर रहे हैं, उस सूरत-ए-हाल को लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता। जंगल आग की चपेट में आ रहे हैं। देश में हजारों उद्योग व फैक्टरियां लगातार प्रदूषण उगल रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्रों व शहरों में ज्यादातर लोग प्रदूषण की जद में जीवनयापन करने को मजबूर हैं।


हिमाचल प्रदेश का नाम सुनते ही जहन में पहाड़ों व वनों की तस्वीर उभरती है। पर्वतीय राज्य हिमाचल में पर्यटन उद्योग युवावर्ग के लिए रोजगार का महत्त्वपूर्ण साधन है। मैदानी क्षेत्रों व शहरों से हजारों की तादाद में लोग भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए तथा सुकून के कुछ पल बिताने के लिए पहाड़ों का रुख करते हैं। प्रकृति से सराबोर जंगल पर्यटन उद्योग के आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं। मगर बरसात के मौसम में प्रकृति के प्रकोप से पहाड़ दरक रहे हैं। गर्मियों में जंगल भीषण आग से जल रहे हैं। कई जंगली जीवों व पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों का प्रजनन काल गर्मी के मौसम में होता है, परन्तु प्रतिवर्ष असंख्य वन्य जीव व जंगली जानवर वनों की भयानक आग में जलकर राख हो जाते हैं। वनों में आगजनी की बढ़ती घटनाओं से वन्य जीवों व पक्षियों की कई दुर्लभ प्रजातियों का वजूद मिट चुका है। औषधीय वनस्पति से लबरेज वनों का आयुर्वेदिक पद्धति में भी अत्यधिक महत्त्व रहा है, मगर वनाग्नि से कई किस्म की औषधीय वनस्पति का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। यदि अमूल्य वन संपदा वनाग्नि की भेंट चढ़ जाएगी, तो पर्यावरण के साथ पर्यटन उद्योग भी मुतासिर होगा। वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर पर काबू पाने का मुफीद विकल्प पेड़ों से लबरेज वन्य क्षेत्र हैं। वन्य क्षेत्र के बिना स्वच्छ पर्यावरण, जैव विविधता व जंगली जीवों के वजूद की कल्पना नहीं की जा सकती। वनों में आग लगने की घटनाओं पर देश के न्यायालय, पर्यावरणकर्ता व सरकारें चिंता जरूर व्यक्त करती हैं, जबकि प्रकृति को सबसे अधिक नुकसान मानवीय गतिविधियों से ही पहुंचता है। जंगलों में आग लगने के ज्यादातर कारण मानवीय लापरवाही के हैं। भयंकर दावानल पर काबू पाना लगभग नामुमकिन है। अलबत्ता सामाजिक तौर पर जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, ताकि जंगलों में आग न लगाई जाए। वनों के लगातार जलने से इस धरा पर समस्त प्राणियों का जीवन असम्भव हो जाएगा। वनाग्नि से अमूल्य वन सम्पदा व जंगली जीवों तथा पक्षियों के जलने का दर्द समझना होगा।



प्राचीन भारत के अनुसंधान का केन्द्र रहे वन्य क्षेत्र मानवीय स्वास्थ्य का सबसे बड़ा रक्षा कवच हैं। भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से वनों का आध्यात्मिक, आर्थिक एंव सांस्कृतिक महत्व रहा है। वैदिक साहित्य के रचयिता हमारे मनीषियों के चितंन, ध्यान साधना, अध्यात्म, दर्शन व शोध का केन्द्र वन्य क्षेत्र ही रहे हैं। आधुनिक दौर के पर्यावरण संरक्षण के आयोजनों व मंत्रालयों के बिना प्रकृति को सहेजने के कई उत्सव व संस्कार प्राचीन भारत की वैदिक संस्कृति व सामाजिक परिवेश में मौजूद थे। उन महान संस्कारों को अपनाने की जरूरत है। बहरहाल यदि कायनात की खूबसूरत वन संपदा का दिलशाद चेहरा दावानल से खाक होता रहेगा, तो प्रकृति व पर्यावरण की तबीयत नासाज हो जाएगी। अत: प्रकृति का संतुलन बरकरार रखने के लिए जंगलों को आग से महफूज रखने के हरसंभव प्रयास होने चाहिएं। वनों को दावानल से हर कीमत पर बचाना होगा।

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