दूर करना होगा लैंगिक भेदभाव
इलमा अजीम
समाज के लिये भी यह विचारणीय प्रश्न है कि शिक्षा, आय, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में आधी दुनिया को उसका हक क्यों नहीं मिल पा रहा है। हमारे सत्ताधीशों को सोचना चाहिए कि लैंगिक अंतर सूचकांक में भारत 146 देशों में 129वें स्थान पर क्यों है। निश्चय ही यह स्थिति भारत की तरक्की के दावों से मेल नहीं खाती। पिछले वर्ष जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की एक तिहाई हिस्सेदारी को लेकर विधेयक पारित हो चुका है। इसके बावजूद हाल में सामने आए आंकड़े परेशान करने वाले हैं और तरक्की के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि सरकार द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक नीतियां बनाने और कायदे कानूनों में बदलाव के बावजूद लैंगिक असमानता की खाई गहरी क्यों होती जा रही है। ये स्थितियां समाज में इस मुद्दे पर खुले विमर्श की जरूरत को बताती हैं।
हालिया लोकसभा चुनाव में सीमित मात्रा में महिलाओं के संसद में पहुंचने ने भी कई सवालों को जन्म दिया है। निश्चित रूप से तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद जमीन पर संकट वास्तविक है। जो हमारी विकास योजनाओं और नीतियों के व्यापक मूल्यांकन की आवश्यकता बता रही है। यह तथ्य विचारणीय है कि हमारे समाज में आर्थिक असमानता क्यों बढ़ रही है। हम समान कार्य के बदले महिलाओं को समान वेतन दे पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं। जाहिर है यह अंतर तभी खत्म होगा जब समाज में महिलाओं से भेदभाव की सोच पर विराम लगेगा। यह संतोषजनक है कि माध्यमिक शिक्षा में नामांकन में लैंगिक समानता की स्थिति सुधरी है। फिर भी महिला सशक्तीकरण की दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। देर-सवेर महिला आरक्षण कानून का ईमानदार क्रियान्वयन समाज में बदलावकारी भूमिका निभा सकता है। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक नेतृत्व इस मुद्दे को अपेक्षित गंभीरता के साथ देखे।
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