फेक लाइक्स और फॉलोअर्स का खेल

- डॉ. शशांक द्विवेदी
इंटरनेट की वजह से पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गयी है। ऐसे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स दुनियाभर के लोगों को आपस में जोड़ने का काम कर रहे हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता और यूजर्स के एक्टिव होने की दर पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़ी है। ऐसे में पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर्स की बाढ़-सी आ गई है। मगर इन सबके बीच बड़े पैमाने पर नकली फालोअर्स वाले इन्फ्लुएंसर्स का बहुत बड़ा खेल हो रहा है, जिससे आम लोग अपना नुकसान कर बैठते हैं।
पिछले दिनों इंग्लैड के पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक शोध मे पाया कि धोखेबाज अपने फर्जी सामानों को बढ़ावा देने के लिए सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की पाॅपुलैरिटी और भरोसे का फायदा उठा रहे हैं, जिससे कस्टमर्स नकली प्रोडक्ट खरीद बैठते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर सक्रिय 16-60 साल की उम्र के लगभग 22 प्रतिशत कस्टमर्स ने इन्फ्लुएंसर्स के द्वारा प्रमोट किए गए सामान खरीदे, जो नकली थे। ‘बहुत सी कंपनियां ऐसी भी हैं जो किसी इन्फ्लुएंसर को कहती हैं कि आप हमारे फलाना प्रोडक्ट का अपने वीडियो में जिक्र करके उसको खरीदने का लिंक डाल दीजिए। अब फेक फॉलोअर्स वाले इन्फ्लुएंसर्स पैसे के लिए बिना प्रोडक्ट को प्रयोग किए प्रमोट करते हैं और बाद में ग्राहकों को पता चलता है कि वो आइटम या तो नकली है या खराब क्वालिटी का है।

दरअसल,बड़ी सोशल मीडिया कंपनियां धांधली रोकने में नाकाम रही हैं। दूसरे नेटवर्क की तुलना में टि्वटर ने ज्यादा फेक अकाउंट पहचाने और हटाए। टि्वटर ने खरीदे गए आधे लाइक और रिट्वीट हटाए। अविश्वसनीय कंटेंट हटाने के मामले में यूट्यूब सबसे खराब पाई गई। फेसबुक फर्जी अकाउंट बनाने और ब्लॉक करने में सबसे अच्छा साबित हुआ लेकिन उसने फर्जी कंटेंट बहुत कम हटाया। इंस्टाग्राम में गड़बड़ी करना सबसे आसान और सस्ता रहा। सच तो यह है कि फर्जीवाड़ा करने वाले लोग बड़ा पैसा कमाते हैं। धांधली करने वाले ये लोग मेजर प्लेटफॉर्म पर खुलेआम अपने विज्ञापन करते हैं। सोशल मीडिया पर लाखों पोस्ट को प्रभावित किया गया।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पेड प्रमोशन के जरिये इन सेलिब्रिटीज की खूब कमाई होती है। लोग अपना ज्यादा से ज्यादा समय मोबाइल की स्क्रीन पर बिताते हैं। इनमें से ज्यादातर योगदान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिताए गए समय का होता है। ऐसे में अक्सर हम फेसबुक या इंस्टाग्राम स्क्रॉल करते समय कोई ऐड देख लेते हैं। विज्ञापन में दिखाए गए प्रोडक्ट्स को देखकर कभी-कभी उस प्रोडक्ट के बारे में और भी ज्यादा जानने की इच्छा होती है। डिजिटल एडवर्टिजमेंट पूरी तरह से इसी पर टिका हुआ होता है। सोशल मीडिया या अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले एडवर्टिजमेंट के जरिये भी हम प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए तत्पर होते हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक , भारत में करीब 8 करोड़ सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर है। तकनीकी विशेषज्ञों के अनुसार , इसमें तेजी से इजाफा हो रहा है। लेकिन चिंता की बात ये है कि इस तेजी के पीछे फेक फाॅलोअर्स और व्यूज का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। नए-नए लोग जल्दी से बड़ा बनने के चक्कर में पैसे देकर अपने फाॅलोअर्स बढ़ाते हैं। सच बात यह है कि आज जो लोग इन्फ्लुएंसर हैं, उसमें से करीब 10 प्रतिशत ही अपनी मेहनत से बिना प्रमोशन का पैसा दिये यहां तक पहुंचे हैं। ये वो इन्फ्लुएंसर हैं, जो पुराने समय ये अब तक जगह बनाए हुए हैं, उस दौर में कंटेंट से ही लोग फाॅलोअर बढ़ा सकते थे। बचे 90 प्रतिशत में से 40 से 45 प्रतिशत वो लोग हैं, जो जिस साइट पर होते हैं, उसी पर अपना प्रमोशन करते हैं और फाॅलोअर्स बढ़ाते हैं। लेकिन बाकी जो 45-50 प्रतिशत इन्फ्लुएंसर कहलाते हैं, तो कहीं न कहीं फेक फालोअर्स, लाइक्स और व्यूज को खरीदते हैं। दरअसल हर कोई जल्दी इन्फ्लुएंसर बनना चाहता है। चाहते हैं, किसी तरह मोनेटाइजेशन हो जाए, हमें बड़ी कंपनियां अपने ब्रैंड प्रमोशन के लिए कॉल करें। दूसरे, वो लोग हैं जो फेमस हैं, लेकिन कोई प्रतियोगिता में उनसे आगे है तो उनसे भी आगे निकलने के लिए वह फेक फॉलोअर्स, लाइक या व्यूज खरीदते हैं। इससे आम लोगों का बड़ा नुकसान हो जाता है।



रिपोर्ट ने सोशल मीडिया नेटवर्क पर क्लिक, लाइक और कॉमेंट बेचने वाली कंपनियों के सामने इंटरनेट कंपनियों की कमजोरी पर एक बार फिर लोगों का ध्यान खींचा है। सोशल नेटवर्क के सॉफ्टवेयर सबसे अधिक लोकप्रिय पोस्ट को प्राथमिकता देते हैं। इससे पैसा देकर जनरेट की गई गतिविधि को प्रमुख स्थान मिलता है। पैसे वाले लोग या कथित बड़े सेलिब्रिटी फेक फॉलोअर्स के खेल का बड़ा हिस्सा हैं।

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