आर्थिक असमानता है कुपोषण की बड़ी वजह

- विजय गर्ग
आज जब पूरी दुनिया में तकनीकी, समृद्धि और आधुनिकता कुलांचे भर रही है, विभाजित आर्थिकी वाले मानव समाज में भूख और कुपोषण समस्या बना हुआ है। हाल ही में, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) के महानिदेशक गिल्बर्ट हुंगबो ने इस सच्चाई से पर्दा उठाया है कि भूख मिटाने के लिए दुनिया भर में करोड़ों बच्चों को स्कूल के बजाय मजदूरी के लिए भेजा जा रहा है। इतना ही नहीं, उन्हें गलत कामों के लिए भी मजबूर किया जा रहा है। बर्दाश्त से बाहर महंगाई के बीच कोविड महामारी के बाद से मासूमों के साथ यह सितम और तेज हुआ है।
ऐसा नहीं कि यह दुनिया के सिर्फ गरीब मुल्कों में हो रहा है, आनुपातिक रूप से ऊंची आर्थिकी वाले देशों में भी यह अधोगति जारी है। ज्यादातर बच्चों, किशोरों को खेती-बाड़ी, खनन, निर्माण आदि क्षेत्रों में झोंका जा रहा है। इस त्रासदी की वजह गरीबी और भूख है । दुनिया के लगभग सोलह करोड़ बच्चे ऐसे हालात से दो-चार हो रहे हैं। बीते दो दशकों में, पहली बार ऐसे हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। बाल मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। यूक्रेन-रूस, इजराइल फिलिस्तीन युद्धों के कारण भी महंगाई ने लोगों की जिंदगी जटिल बना दी है। भूख मिटाने के लिए बच्चों को भी शारीरिक श्रम के लिए मजबूर किया जा रहा है।
यह सच्चाई है कि अकेले भारत में सड़सठ लाख बच्चे भूखे पेट सो जाते हैं। यह संख्या सूडान, माली जैसे देशों से भी ज्यादा है। सर्वेक्षक इसे 'शून्य खाद्य' की स्थिति करार देते हैं, जो गंभीर खाद्य असुरक्षा की गहन चिंताएं उत्पन्न करता है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक - 2023 के मुताबिक, इस त्रासदी की जद में काम पर जाने वाले बच्चे और किशोर ही नहीं, बल्कि उनमें छह से ग्यारह माह के तीस फीसद, 12 से 17 माह के तेरह फीसद और 18 से 23 माह के आठ फीसद शिशु भी शुमार हैं। इस बीच हमारे देश में अल्प-पोषण व्यापकता 14.6 फीसद से बढ़ कर 16.3 फीसद हो चुकी है। ऐसे में कुपोषित बच्चों की निगरानी और उन्हें इस जटिल हालात से उबारने के लिए कोई व्यापक नीति बनाना भी सरकारों के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण हो चुका है। आंकड़ों के मुताबिक, हमारे देश में लगभग साठ फीसद बच्चे दुग्ध आदि पोषक आहार से वंचित रह जा रहे हैं।
बच्चों के भयावह शोषण की एक बड़ी वजह बाल तस्करी भी है। गरीबी, मानवीय संकट और शिक्षा की कमी इसकी उच्च दर को हवा दे रही है। मुश्किल तो यह है कि इसका कोई सटीक आंकड़ा मिल पाना आसान नहीं होता। वैश्विक चुनौती बन चुकी बाल मजदूरी के बारे में, एक अनुमान के मुताबिक, हर साल बीस हजार से अधिक बच्चों की तस्करी हो रही है। बच्चों की व्यापक सुरक्षा, तस्करी की रोकथाम, कानूनी प्रवर्तन और पीड़ितों की अपेक्षित सहायता के तकाजे के बावजूद, यह तादाद हर वर्ष बढ़ती जा रही है। प्रति वर्ष कम से कम तीन लाख बच्चे अगवा होते हैं। उनमें से बड़ी संख्या में बच्चे तस्करों के हाथ लग जाते हैं। मानव तस्करी विरोधी संगठन 'थार्न' की एक रपट के मुताबिक इनमें से हर तेरहवां बच्चा यौन शोषण में झोंक दिया जाता है।
भारत में, बाल और किशोर श्रम निषेध अधिनियम के बावजूद बच्चों का एक बड़ा अनुपात मजदूरी में लगा हुआ है। कहने को सीएलपीआर अधिनियम किसी भी बच्चे से मजदूरी कराने को गैरकानूनी करार देता हैं, लेकिन पिछली राष्ट्रीय जनगणना (2011) के मुताबिक, देश के कुल 25.964 करोड़ बच्चों में से 1.012 करोड़ भिन्न प्रकार की मजदूरी में पाए गए। विश्व में ऐसे बच्चों की संख्या 21.7 करोड़ से अधिक बताई जाती है। यूनिसेफ और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रपट बताती है कि पहले की अपेक्षा बाल मजदूरों की तादाद में 89 लाख तक की वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, बाल मजदूरी के सबसे अधिक मामले तेलंगाना में दर्ज हो रहे हैं। असम दूसरे स्थान पर रहा है। ज्यादातर बच्चे ईंट निर्माण उद्योग में कार्यरत पाए गए हैं। यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बाल मजदूर कठोर श्रम कर रहे हैं।
भुखमरी और कुपोषण की सबसे बड़ी वजह आर्थिक असमानता, निर्धनता और महंगाई है। प्रभावित आबादी खाद्य पदार्थों के साथ पेय जल और स्वच्छता से भी वंचित होती जा रही है। बढ़ती भुखमरी की दूसरी बड़ी वजह, सरकारी योजनाओं और नीतियों का समुचित रूप से क्रियान्वयन न हो पाना है। विश्व में युद्धों और सूखा, बाढ़, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस हालत को कठिन बनाया है। कृषि गतिविधियां छिन्न-भिन्न हुई हैं। खाद्य उत्पादन का असमान वितरण हो रहा है। भारत में गरीबी और बाल श्रम की स्थितियां अब तो भयावह होती जा रही हैं, जिसके खतरनाक नतीजे बच्चों के भारी शोषण के रूप में सामने आ रहे हैं। पांच किलो राशन पर आश्रित 80- 81 करोड़ परिवारों में से ज्यादातर लोग आर्थिक असुरक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी का सामना कर रहे हैं। अधिकतर बाल मजदूर ऐसे ही परिवारों से आते हैं।
इस बीच वैश्विक असमानता को रेखांकित करने वाली संयुक्त राष्ट्र की ताजा रपट बताती है कि दुनिया में लगभग अस्सी करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सो जाते हैं, दूसरी तरफ भोजन की लगभग एक अरब थालियां बर्बाद कर दी जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की 'फूड वेस्ट इंडेक्स-2024' रपट के मुताबिक बीते अकेले एक वर्ष में 1.05 अरब टन भोजन बर्बाद कर दिया गया, जिसमें से करीब 20 फीसद खाद्य कूड़े में फेंक दिया गया। आज लाखों लोग जहां भूखे पेट सो जा रहे हैं, बाजार में उपलब्ध खाद्य उत्पादों का लगभग पांचवां हिस्सा बर्बाद कर दिया जा रहा है। अब तो यह बर्बादी वैश्विक त्रासदी बनती जा रही है। यह बर्बादी जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान का भी सबब बन रही है।


यूएन की एक रपट के मुताबिक सालाना, सबसे ज्यादा 63.1 करोड़ टन (लगभग 60 फीसद) भोजन घरों में बर्बाद कर दिया जा रहा है। दुनिया के संपन्न लोगों में हर व्यक्ति वार्षिक कम से कम दो क्विंटल से ज्यादा भोजन बर्बाद कर देता है। बीते तीन वर्षों से संयुक्त राष्ट्र इस स्थिति पर बारीकी से नजर रख रहा है। भोजन की यह बर्बादी संपन्न और विपन्न दोनों तरह के देशों में समान रूप से पाई गई है। उच्च, उच्च मध्यम और निम्न मध्यम आय वाले देशों के बीच प्रति व्यक्ति वार्षिक खाद्य अपशिष्ट दर में केवल सात किलोग्राम का फर्क देखा गया है, लेकिन शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच ऐसी बर्बादी में अंतर पाया गया है। मध्यम आय वाले देशों में ग्रामीण आबादी अपेक्षाकृत कम भोजन बर्बाद करती है। संयुक्त राष्ट्र की कोशिश है कि भोजन की बर्बादी 2030 तक पचास फीसद कम कर दी जाए।
(शैक्षिक स्तंभकार, मलोट, पंजाब)

No comments:

Post a Comment

Popular Posts