भाषाओं को बचाने की भारतीय पहल

- प्रमोद भार्गव
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगार मूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है। पिछले 75 सालों में हमारी भाषाओं और बोलियों के साथ यही होता रहा है, परंतु अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी) को लागू करने की दिशा में उल्लेखनीय पहल करते हुए केंद्र सरकार नए सत्र से पांच नए उपाय करने जा रही है। इनमें बच्चों को मातृ, घरेलू और क्षेत्रीय भाषा में पाठ्य पुस्तकें पढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए 52 प्रवेशिकाएं अर्थात पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गई हैं। इनसे छात्र-छात्राओं से लेकर वयस्क तक वर्णमाला और दो अंकों तक गणित सीख सकेंगे। पहले चरण में 17 राज्यों की राजभाषा व स्थानीय भाषा में 52 पुस्तकें मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने तैयार की हैं।
देश में ऐसी 121 भाषाएं हैं जिन्हें क्षेत्रीय लोग स्थानीय स्तर पर लिखने व बोलने में प्रयोग करते हैं। जल्दी ही देश के बाकी राज्यों की आंचलिक भाषाओं में प्रवेशिका उपलब्ध करा दी जाएंगी। इन पाठ्य पुस्तकों का उपलब्ध होना न केवल विद्यार्थियों के लिए, बल्कि विलोपित हो रही मातृभाषाओं का अस्तित्व बचाए रखने की परिवर्तनकारी पहल है। यह पहल निर्बाध और भविष्यवादी शिक्षण परिदृश्य तैयार कर भारतीय भाषाओं में सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगी। इससे नई शिक्षा नीति का दृष्टिकोण साकार होगा और शालेय शिक्षा में महत्वपूर्ण बदलाव आएंगे। सरकार ने राष्ट्रीय विद्या समीक्षा केंद्र का राज्य इकाइयों व 200 डीटीएच चैनलों के साथ एकीकरण का निर्णय भी लिया है। इस हेतु सरकार ने 12वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए 22 क्षेत्रीय व प्रादेशिक भाषाओं में चैनल तैयार कर लिए हैं।
ये बिना इंटरनेट चलेंगे। भविष्य में ये चैनल ओटीटी और यू-ट्यूब पर भी उपलब्ध होंगे। भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे हैं कि किसी एक इनसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए। 26 जनवरी 2010 को अंडमान द्वीप समूह की 85 वर्षीय बोआ के निधन के साथ ग्रेट-अंडमानी भाषा ‘बो’ भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इनसान थीं। इसके पूर्व नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ खोरा भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया था। नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है। सन् 2100 तक भूमण्डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाओं का लोप हो सकता है।
इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व जनजातीय भाषाएं हैं जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और पारंपरिक ज्ञान का भंडार हैं। भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है जिन्हें 10 हजार से अधिक लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 121 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम है, उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया। पूरी दुनिया में सात्ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की 17 भाषाएं शामिल हैं। यूनेस्को द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरीभाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटेभाषी करीब 19 हजार लोग अभी बाकी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं। वे ही भाषाएं बोलियों और लिपियों के रूप में जीवित रह सकती हैं जो उपयोग में बनी रहें।
पूरी दुनिया में 15 हजार से अधिक भाषाएं दर्ज हैं, लेकिन आज उनमें से आधी से ज्यादा मर गई हैं। इसका कारण इन्हें उपयोग से वंचित कर देना है। कई लोग भाषाओं की विलुप्ति का कारण आक्रांताओं के हमलों को मानते हैं।
भारत में भी इस स्थिति को भाषाओं की विलुप्ति का कारण माना गया, लेकिन यह तथ्य थोथा है। फ्रांस में भी यह भ्रम फैला हुआ है। फ्रेंच भाषियों को यह आशंका सता रही है कि वहां कीयुवा पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति आकर्षित है, इसलिए वहां अंग्रेजी से मुक्ति के उपाय सुझाए जा रहे हैं। नाइजीरिया और केमरून की बिक्या भाषाएं प्रयोग में नहीं रहने के कारण लुप्त हुईं। इस भाषा को प्रचलन में बनाए रखने वाले एक-एक कर जब मरते चले गए तो उनके साथ भाषा भी काल में समाती चली गई। वर्तमान में विश्व की 90 प्रतिशत भाषाओं और बोलियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। वैसे भाषाओं का मरना हर युग और हर देश में एक सिलसिला बना रहा है।
भारत की सबसे प्राचीन ब्राह्मी लिपि को आज बांचने वाला कोई नहीं है। विकास के साथ जो भाषा जुड़ी होती है, उसकी जीवंतता बनी रहती है। आज अंग्रेजी जहां भाषाओं की विलुप्तता की दृष्टि से खलनायिका साबित हो रही है, वहीं इसके महत्व को एकाएक इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह आधुनिक तकनीक के व्यावहारिक और व्यावसायिक उपयोग का विश्वव्यापी आधार बन गई है।
दुनिया की युवा पीढ़ी विश्व समाज से जुडऩे के लिए अंग्रेजी की ओर आकर्षित है, लेकिन यदि अंग्रेजी इसी तरह पैर पसारती रही तो दुनिया में भाषाई एकरूपता छा जाएगी, जिसकी वटवृक्षी छाया में अनेक भाषाएं मर जाएंगी। भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीनभावना भी पनप रही है। 


भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेष में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का संरक्षण तो करेंगे ही, उन्हें रोजगार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति अनायास पनपने वाली हीनभावना से भी मुक्त होगी। इस नजरिए से 52 क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई एक अनूठी और आवश्यक पहल है। भाषा संबंधी नीतियों में ऐसे ही बदलावों से लुप्त हो रही भाषाओं को बचाया जाना संभव होगा।

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