राजनीति में अवसरवाद चिंताजनक
चुनावों में आचार संहिता के चलते कई प्रतिबंध लागू हो जाते हैं, लेकिन राजनीति में दल-बदल का दौर चुनावों के दौर में ही सबसे ज्यादा होता है। आजकल दल-बदलने का दौर खूब हो रहा है। यह बात दूसरी है कि ज्यादातर नेताओं में भाजपा का दामन थामने की होड़ मची है। एक दिन पहले भाजपा पर निशाना साधने वाले मुक्केबाज विजेंदर ने कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। महज चौबीस घंटे में विजेंदर का दिल क्यों बदल गया, इसका जवाब तो उनको ही देना चाहिए था, लेकिन घर वापसी और अपने दल में दम घुटने का बहाना ही नेताओं के पास रहने लगा है। हर बार चुनावों के इस दौर में 'आयाराम-गयाराम' के खेल में कभी कोई एक पार्टी बाजी मारती है तो कभी कोई दूसरी पार्टी। सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हों, पूर्व अधिकारी अथवा अभिनेता और खिलाड़ी वे राजनीति में आएं इससे कोई इनकार नहीं करेगा। अगर भाजपा की विचारधारा विजेंदर या उन जैसे लोगों को अच्छी लगती है तो सवाल यह भी है कि पिछले पांच साल तक वे कांग्रेस में क्यों रहे? ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो गत वर्ष के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में एक पार्टी के चुनाव चिह्न पर उम्मीदवार थे तो अब दूसरी पार्टी का चुनाव चिह्न लेकर मैदान में उतरते दिख रहे हैं। ऐसे नेता फिर किसी नई पार्टी में नहीं जाएंगे इसकी क्या गारंटी है? अच्छे लोग राजनीति में यदि सिर्फ पद पाने के लिए ही आएं तो उसे क्या माना जाए?  ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं कि नामी-गिरामी लोगों ने राजनीति में प्रवेश किया, टिकट भी मिला और चुनाव जीते भी। उसके बाद जनता से जुड़ ही नहीं पाए और अगले चुनाव में इनका टिकट कट गया। देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि टिकट किसे और क्यों दिया जाए? पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर चंद घंटों पहले पार्टी में शामिल होने वाले को टिकट देना कहां तक उचित है। 

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