हेट स्पीच पर हो सख्ती
 इलमा अजीम 
हमारे देश का संविधान किसी को यह कतई इजाजत नहीं देता कि वह दूसरे धर्म का अपमान करे। किसी भी धर्म को लेकर दुष्प्रचार का प्रयास किया जाता है तो स्वाभाविक है कि उस धर्म विशेष को मानने वालों को ठेस भी पहुंचेगी। सनातन धर्म पर उस विवादित टिप्पणी को लेकर देश की शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन को फटकार लगाई है जिसमें सनातन धर्म की तुलना कोरोना, डेंगू व मलेरिया जैसी बीमारियों से करने के साथ इसे खत्म करने की बात कही गई थी। जाहिर है कि इस विवादित टिप्पणी पर देश भर में जैसी प्रतिक्रिया आई उसे अदालत ने गंभीर माना है। दरअसल, नेताओं का यह शगल भी बन गया है कि पहले विवादित बयान दो, उसकी प्रतिक्रिया को देखो, अपने दल की नहीं खुद के प्रचार की चिंता करो और बहुत ज्यादा बवाल होता दिखे तो माफीनामा पेश कर दो। सुप्रीम कोर्ट ने स्टालिन के लिए ठीक ही कहा कि वे आम आदमी नहीं बल्कि मंत्री हैं। उनकी किसी भी टिप्पणी के क्या परिणाम होंगे इसका अंदाजा भी उन्हें होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच यानी नफरती भाषण को लेकर सख्त टिप्पणी पहली बार नहीं की है। पहले भी कई बार वह सख्ती दिखा चुका है। पिछले साल तो कोर्ट ने यहां तक कह दिया था कि राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को ऐसे मामलों में स्वप्रेरणा से प्रसंज्ञान लेकर शिकायत नहीं मिलने पर भी अपनी तरफ से एफआइआर दर्ज करनी चाहिए। हैरत की बात यह है कि तमिलनाडु के मंत्री ने उनके खिलाफ इस प्रकरण में विभिन्न राज्यों में दर्ज मुकदमों को एक साथ करने की मांग अदालत से की है। अदालत ने इसीलिए स्टालिन से यह तल्खी भरा सवाल भी पूछ लिया कि अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग करने के बाद वे याचिका लेकर शीर्ष कोर्ट तक क्यों आए हैं। अभी इस प्रकरण की सुनवाई जारी है। अहम सवाल यही है कि आखिर हमारे जनप्रतिनिधियों को हर बार कोर्ट को ही ऐसी नसीहतें क्यों देनी पड़ती हैं? आखिर क्यों नेताओं के विवादित बयानों से हमारे देश में समुदायों के बीच संघर्ष और अविश्वास की काली घटाएं छाने लग जाती हैं? अब चूंकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, ऐसे में इन सवालों का जवाब तलाशना ज्यादा जरूरी हो गया है। जरूरी इसलिए भी कि ठोस कार्रवाई का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए खुद को सुरक्षा कवच पहना हुआ मानते हुए इन नेताओं को लगता है कि वे कानून से ऊपर हैं। चुनाव के मौकों पर हेट स्पीच के बावजूद नेताओं को हार का सामना नहीं करना पड़ता। इसलिए वे इसका चुनावी फायदा उठाने की कोशिश भी करते हैं। जब तक ऐसे बयानवीरों को चुनाव लडऩे के अयोग्य नहीं ठहराया जाता, तब तक ऐसे प्रकरण पूरी तरह खत्म होना मुश्किल है।

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