गरीबी के दंश से बाहर निकल रहा भारत

-सुनील कुमार महला

भारतीय शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में प्रगति हो रही है। हाल ही में नीति आयोग ने यह कहा है कि भारत का गरीबी स्तर पांच प्रतिशत से नीचे आया है। दरअसल नवीनतम घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण द्वारा जारी आंकड़ों में यह बात सामने आई है और उसी के हवाले से नीति आयोग ने यह बात कही है कि भारत अब लगातार समृद्धि की ओर बढ़ रहा है। जानकारी देना चाहूंगा कि घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण आमतौर पर राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा हर पांच साल में आयोजित किया जाता है। वास्तव में, इस सर्वेक्षण का उद्देश्य देश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के लिए घरेलू मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) और इसके वितरण का अलग-अलग अनुमान तैयार करना है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय यानी कि एनएसएसओ द्वारा कुछ समय पहले जारी आंकड़ों के अनुसार, प्रति व्यक्ति मासिक घरेलू खर्च वर्ष 2011-12 की तुलना में वर्ष 2022-23 में दोगुना से अधिक हो गया है जो देश में समृद्धि के बढ़ते स्तर को दर्शाता है।आंकड़ों से पता चलता है कि सभी श्रेणियों के लिए औसत प्रति व्यक्ति मासिक व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में 3,773 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 6,459 रुपये है। दरअसल,प्रति व्यक्ति मासिक घरेलू खर्च दुगुना हो गया है। इस वृद्धि को पूरी आबादी के जीवन स्तर में अहम सुधार का संकेत माना जा सकता है। वैसे कहा यह भी जा सकता है कि घरेलू खर्च में यह बढ़ोतरी बेलगाम महँगाई का भी प्रतिबिंब है।निचले 0-5 प्रतिशत वर्ग का औसत प्रति व्यक्ति मासिक व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में 1,373 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 2,001 रुपये आंका गया है। आंकड़ों से यह बात पता चलती है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में खपत लगभग 2.5 गुना बढ़ गई है। यह बताता है कि आज देश में शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में प्रगति हो रही है।ग्रामीण क्षेत्रों में खपत शहरी क्षेत्रों की तुलना में तेजी से बढ़ रही है जिससे दोनों क्षेत्रों(ग्रामीण व शहरी)के बीच असमानताएं कम हो रही हैं।

सर्वेक्षण में सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ को भी शामिल किया गया है जिसने उन गरीब परिवारों की खपत में योगदान दिया है जिन्हें अपने बच्चों के लिए मुफ्त खाद्यान्न और साइकिल और स्कूल यूनिफॉर्म जैसे सामान मिले हैं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि वर्ष 2011-12 में अंतर 84 प्रतिशत था और वर्ष 2022-23 में घटकर 71 प्रतिशत हो गया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2004-05 में यह अंतर 91 प्रतिशत था। एनएसएसओ सर्वेक्षण देश में ग्रामीण और शहरी दोनों परिवारों के कुल खर्च में अनाज और भोजन की खपत की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय गिरावट का भी संकेत देता है। इसका मतलब है कि लोग अतिरिक्त आय के साथ समृद्ध हो रहे हैं। इस बढ़ी हुई समृद्धि के साथ वे भोजन के अलावा अन्य चीजों पर अधिक खर्च कर रहे हैं। यहां तक कि भोजन में भी, अधिक दूध पी रहे हैं, फल और अधिक सब्जियां खा रहे हैं। हालांकि भोजन और अनाज की हिस्सेदारी में कमी आई है। इस दौरान गैर-खाद्य वस्तुओं जैसे फ्रिज, टेलीविजन, बेव्रेज और प्रोसेस्ड फूड, स्वास्थ्य और परिवहन पर ख़र्च बढ़ गया है जबकि अनाज और दालों जैसे खाद्य पदार्थों पर ख़र्च धीमा हो गया है।

खाने पर ख़र्च साल 1999-2000 में 48.06 प्रतिशत, 2004-05 में 40.51 प्रतिशत, 2009-10 में 44.39 प्रतिशत, 2011-12 में 42.62 प्रतिशत था, जो अब 39.70 प्रतिशत हो गया है। वहीं गैर-खाद्य वस्तुओं का ख़र्च 1999-2000 में 51.94 प्रतिशत, 2004-05 में 59.49 प्रतिशत, 2009-10 में 55.61 प्रतिशत, 2011-12 में 57.38 प्रतिशत था, जो अब 60.30 प्रतिशत हो गया है। मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में भारत में 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से उबर गए हैं। स्टडी में कहा गया है कि गरीबी अनुपात में 2013-14 में 29.17 प्रतिशत से भारी गिरावट आई है और 2022-23 में 11.28 प्रतिशत हो गई है, जो 17.89 प्रतिशत अंक की कमी है। जानकारी देना चाहूंगा कि इसके अनुसार उत्तर प्रदेश में पिछले नौ वर्षों के दौरान 5.94 करोड़ लोगों के बहुआयामी गरीबी से बाहर निकलने के साथ गरीबों की संख्या में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है, इसके बाद बिहार में 3.77 करोड़, मध्य प्रदेश में 2.30 करोड़ और राजस्थान में 1.87 करोड़ लोग हैं।

नीति आयोग ने यह भी कहा है कि भारत वर्ष 2030 से पहले ही बहुआयामी गरीबी को आधा करने के अपने लक्ष्य को हासिल कर लेगा। दरअसल,पोषण अभियान और एनीमिया मुक्त भारत जैसी उल्लेखनीय पहलों ने स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिससे अभाव में काफी कमी आई है। दुनिया के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों में से एक का संचालन करते हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली 81.35 करोड़ लाभार्थियों को कवर करती है, जो ग्रामीण और शहरी आबादी को खाद्यान्न प्रदान करती है। इतना ही नहीं, मातृ स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न कार्यक्रम, उज्ज्वला योजना के माध्यम से स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन वितरण, सौभाग्य के माध्यम से बिजली कवरेज में सुधार और स्वच्छ भारत मिशन व जल जीवन मिशन जैसे परिवर्तनकारी अभियानों ने सामूहिक रूप से लोगों की रहने की स्थिति और समग्र कल्याण बढ़ाया है। इसके अलावा, प्रधानमंत्री जन धन योजना और पीएम आवास योजना जैसे प्रमुख कार्यक्रमों ने वित्तीय समावेशन और वंचितों को आवास मुहैया कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारतीय घरों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) 2011-12 के बाद से शहरी परिवारों में 33.5 प्रतिशत बढ़कर 3,510 हो गया, जबकि ग्रामीण भारत का एमपीसीई इसी अवधि में 40.42 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 2,008 तक पहुंच गया। इतना ही नहीं, ग्रामीण परिवारों के लिए भोजन पर खर्च का अनुपात 2011-12 में 52.9 प्रतिशत से घटकर 46.4 प्रतिशत हो गया है, जबकि उनके शहरी समकक्षों ने भोजन पर अपने कुल मासिक व्यय का केवल 39.2 प्रतिशत खर्च किया है, जबकि 11 साल पहले यह 42.6 प्रतिशत था। हाल फिलहाल यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हाल ही में जारी उक्त आंकड़े सुखद हैं क्यों कि ग्रामीण और शहरी भारत के बीच अब तक बड़ी आर्थिक खाई देखने को मिल रही थी, आंकड़े इस खाई को कम दिखाते हैं,जो कि बहुत अच्छी बात है।

यह भी पता चला है कि लोग अब अनाज की तुलना में दूध, फल, सब्ज़ी और प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों पर ज़्यादा खर्च करने लगे हैं। मतलब यह है कि आज खानपान का लगातार विविधीकरण हो रहा है और इससे पोषण संबंधी परिणामों में सुधार की भी आस बँधती दिखाई देती प्रतीत होती है। वास्तव में भारत को विकासशील देश से विकसित देश बनाने के लिए गरीबी का कलंक मिटाया जाना बहुत ही जरूरी है। क्यों कि गरीबी कम होगी तो यह निश्चित ही है कि इससे लोगों को बेहतर स्वास्थ्य, बेहतर शिक्षा की सुविधाएं मिल सकेगी। बेहतरीन स्वास्थ्य और बेहतरीन शिक्षा का मतलब है किसी भी राष्ट्र का विकास की ओर अग्रसर होना। बढ़ी हुई आर्थिक उत्पादकता का किसी भी राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण व अहम् योगदान होता है। सर्वेक्षण बताता है कि देश व समाज आज निरंतर प्रगति और विकास की ओर अग्रसर है।


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