मदारी, दर्शक और अपने-अपने जादू
- कृष्ण कुमार निर्माण
लो जी।सब होशियार,खबरदार हो जाओ क्योंकि आज से ही,अब से ही,अभी से ही तमाम तरह के काले, पीले, नीले, हरे, गुलाबी जादूगर अपनी-अपनी डुगडुगी लेकर गली, मुहल्ले, चौक, चौराहे, नुक्कड़, चौपाड़, धर्मशाला, नगर, डगर, शहर, नदी, नाले, गली और गितवाड़े आएंगे। ये तमाम मदारी अपने हाथ में एक झोला लिए हुए होंगे। अरे!ये झोला छाप डॉक्टर नहीं होंगे? क्या समझ जाते हैं आप भी? झोला छाप डॉक्टर का काटा तो आदमी बच सकता है मगर इन राजनीतिक मदारियों का काटा कोई नहीं बचता क्योंकि ये काटते बहुत ही मीठे तरीके से हैं साहब! इनके आगे तो हसीनाएं भी फेल हैं, उनकी क्या औकात साहब? ये जो मुए असल के मदारी होते हैं ना,उनके झोले में तो असल का सामान होता है बस बेचारे एक बार नजरबंद करते हैं और अपना खेल दिखाकर चले जाते हैं और बदले में थोड़ा आटा भी ले लेते हैं, कोई पांच रुपये, दस-बीस रुपये भी देते हैं।
अरे! कमाल है कोई-कोई तो इन्हें अठन्नी-चवन्नी भी दे देता हैं मगर ये उफ! तक नहीं करते। मगर आजकल ऐसे मदारी लगभग लुप्तप्रायः हो चुके हैं। मगर ये राजनीतिक मदारी इनसे अलग हैं।इनके झोले में कोई सामान-वामान नहीं होता बल्कि होते हैं वादे,भाषण,बातें,जुमले आदि-आदि और अपने से इतर मदारियों के लिए गाली-वाली भी।कमाल है इनकी डुगडुगी कोई ना सुने।साहब!कृष्ण की मुरली की धुन थोड़ी खराब हो सकती है मगर मजाल है कि इनकी डुगडुगी की धुन कभी खेल दिखाते हुए बेसुरा गाए।हाँ,खेल दिखाने के बाद इस डुगडुगी के सुर रूपी तेवर ऐसे बदलते हैं कि साहब पूछिए मत फिर तो जनता रूपी दर्शक इनके नतमस्तक भी हो जाएं मगर इनकी डुगडुगी कभी भी सुर का अलाप नहीं कर सकती।
गजब यह भी है कि इन तथाकथित मदारियों को आटा-वाटा नहीं चाहिए क्योंकि आटा-वाटा तो ये खुद ही बांटते फिरते हैं और ना ही इन्हें सूट-वूट चाहिए क्योंकि सूट-वूट तो ऐसे-ऐसे पहनकर आते हैं कि सूट देने वाले को ही शर्म आती है।और तो और चवन्नी-अठन्नी से तो इन्हें बड़ी घिन्न आती है जी और इसलिए समय रहते इन्होंने उसे बंद कर दिया ताकि कहीं कोई इन्हें चवन्नी-अठन्नी ना दे बैठे?बस इन्हें तो बांड रूप में मोटी-मोटी राशि चाहिए और फिलवक्त इनकी खुराक है कि जब भी ये आपके आस-पास आएं तब आप अपने परिवार की पूरी पलटन को लेकर,अड़ौसियों-पड़ौसियों, यारे, प्यारे, रिश्तेदारों, मित्र, वित्रों को लेकर इनका खेल देखने चले जाइए। इनके झंडे हाथ में पकड़े रखिए और जो भी ये बोले,बस वैसा ही बोलते रहिए और जोर से जिंदाबाद करते रहिए।बस यही इनकी खुराक है।और फिर जो ये अपने झोले से निकाल-निकालकर आपकी तरफ फेंके, उसे गुफ़्ते रहिए, विश्वास कीजिए वो सब कुछ असली नहीं होगा पर असली जैसा होगा।ये मुए ऐसा जादू करते हैं कि अच्छे पढ़े-लिखे,कढ़े-वढे भी गच्चा खा जाते हैं।


इसलिए तैयार हो जाइए इनका खेल देखने के लिए। मजा तो तब आएगा कि ये बहरूपिए जादूगर अनेक-अनेक रूपों में आपके सामने आएंगे और फिर भी इनका असली रूप छिपा ही रहेगा और इन्हें बस आपका वोट रूपी प्रसाद चाहिए क्योंकि यही इनके लिए मुफीद होता है जी।इसलिए धर्म,जाति,भाषा,सम्प्रदाय,रंग,नस्ल सब इनके मुद्दे होते हैं।बाकी से इन्हें कोई मतलब नहीं है।हर पाँच साल बाद इस तरह के मदारी आते हैं,पक्का आते हैं,चूकते नहीं है।खैर,मदारियों का खेल देखिए और मजा लीजिए मगर सोच-समझकर अपना वोट रूपी प्रसाद इन्हें दीजिए वरना पछताना भी पड़ सकता है।
(स्वतंत्र लेखक,शिक्षाविद और साहित्यकार, करनाल)

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