जनकल्याण हो लक्ष्य
 इलमा अजीम 
येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाने की राजनीति देश को किस मोड़ पर ले जाएगी, कोई नहीं जानता। देश में सरकारें गिराने और बचाने का खोल इतना आम हो चुका है कि न राजनीतिक नैतिकता बची है और न ही मर्यादा। झारखण्ड में एक पखवाड़े से चल रही कुर्सी की लड़ाई का समापन सोमवार को नए सीएम के बहुमत साबित करने के साथ भले ही हो गया हो लेकिन उठापटक की राजनीति किस करवट बैठ जाए, कुछ कहना मुश्किल है। झारखण्ड के ही पड़ोस बिहार में भी 'तू डाल-डाल, मैं पात-पात' वाला खेल चल रहा है। राज्य में नीतीश कुमार ने एक बार फिर पलटी मारते हुए राजद-कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। नीतीश को भी विधानसभा में बहुमत हासिल करना है। विधायकों की खरीद-फरोख्त की खबरें वहां से भी आ रही हैं। राज्य में कांग्रेस अपने विधायकों को बाहर भेज चुकी है ताकि तोड़-फोड़ न हो। इसे लोकतंत्र की विडम्बना ही कहा जाएगा कि विधायक अपने ही घर में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे। इतना ही नहीं, देश की राजधानी दिल्ली भी इन दिनों इसी तरह के राजनीतिक ड्रामे का गवाह बनी है। आम आदमी पार्टी को अपने विधायकों के खरीदे जाने का डर सता रहा है। पार्टी प्रमुख एक-एक विधायक को 25-25 करोड़ रुपए के ऑफर की बात को हवा में उछाल चुके हैं। अब पुलिस उनके घर जाकर उनसे सबूत मांग रही है। कहने का आशय यह है कि जोड़-तोड़ की राजनीति हर जगह हावी होती दिखती है। अपने विधायकों और सरकारों को चुनने वाले मतदाता खामोशी से इस तमाशे को देख रहे हैं। और कर भी क्या सकते हैं? सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि जनकल्याण की चिंता करते हुए राजनीति में आने वाले राजनेता आखिर ऐसे खेल को बढ़ावा क्यों देते हैं? दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है कि जब जिसे मौका मिलता है, तब हर राजनीतिक दल इस खेल में शामिल हो जाता है। बड़ी वजह यह भी है कि दलबदल कानून के प्रावधानों में भी गलियां निकाल ली गई हैं। जनता जिस दल के लिए किसी राजनेता को जनादेश देती है वह जनादेश का सम्मान करने की बजाय पाला बदलने लगे तो इससेे ज्यादा शर्मनाक स्थिति और क्या होगी? पिछले दरवाजे से सत्ता पाने की लालसा ही राजनीति में आती जा रही गिरावट का सबसे बड़ा कारण है। अभी समय है जब सभी राजनीतिक दल इस तरह के खेल को बंद करने पर एकराय बना सकते हैं।

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