...ताकि बेटियां हों सुरक्षित
इलमा अजीम
भारत में आजादी के बाद से ही सरकारों ने बालिकाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए निरन्तर कदम उठाए हैं। समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को खत्म करने के उद्देश्य से ही बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, लड़कियों के लिए मुफ्त अथवा रियायती शिक्षा, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे अनेक अभियान और कार्यक्रम शुरू किए गए। आज हर क्षेत्र में बालिकाओं को बराबर का हक दिया जाता है लेकिन फिर भी समाज में उनकी सुरक्षा के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
भले ही बालिकाओं के साथ होने वाले अपराधों के खिलाफ कई कानून बनाए जा चुके हैं और ‘सेव द गर्ल चाइल्ड’ जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं, फिर भी समाज में बालिकाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। देशभर में बच्चियों और किशोरियों के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार तथा बलात्कार के मामलों में निरन्तर बढ़ोतरी हो रही है, ऐसे में काफी चिंताजनक तस्वीर उभरती है। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद से बालिकाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है बल्कि वे हर क्षेत्र में अपनी सशक्त भागीदारी निभाती दिख रही हैं। यह भी सच है कि उन्हें स्वयं को साबित करने के लिए ज्यादा संघर्ष का सामना करना पड़ता है। एनसीआरबी के मुताबिक बालिका दिवस शुरू करने के बाद वर्ष 2009 में महिलाओं के प्रति अत्याचारों में 4.05 फीसदी, 2010 में 4.79, 2011 में 7.05, 2012 में 6.83 फीसदी की वृद्धि हुई। वर्ष 2021 में तो महिलाओं के प्रति अपराधों में 63 फीसदी तक की वृद्धि दर्ज हुई। बालिकाओं की तस्करी के मामलों में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। कुछ मामलों में तो दरिंदों द्वारा बलात्कार के बाद मासूम बच्चियों को जान से मार दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि बालिकाओं के प्रति होते भेदभाव के अलावा उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलने के भी गंभीर प्रयास हों। समाज में उन्हें भयमुक्त वातावरण प्रदान करने के लिए गंभीरता से कदम उठाए जाएं। आज भी कन्या भ्रूण हत्या से लेकर लैंगिक असमानता और यौन शोषण तक में कोई कमी नहीं है। लैंगिक भेदभाव समाज में आज भी एक बड़ी समस्या है।



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