मन की बातें अपने दिल से

   
नजरों का धोखा है मेरे या मेरे मन का भ्रम,
कस्तूरी ढूंढे वन-वन हिरण, ये कैसा? वहम।
सुगन्धित  कस्तूरी  भ्रमित  करे मृग का मन,
जबकि वो तो स्थिर है नाभि में मृग के  तन।।

मृग भांति भटक रहा मेरा भी ये पागल मन,
ह्रदय में बसा प्रेम पर ढूंढ रहा घर, गली, उपवन।
लोगों से सुना है  पेड़ो पे नाम  लिखें होते है,
उस प्रेम निशानी को ढूँढू पर्वत, पहाड़, कानन।।

वक्त गुजरता है यादें धुंधली हो जाती हैँ शायद,
इसी चाह में मैंने भी कितने लम्हें गुजार देखा है।
आईना सुंदरता  दिखाती है  अपने परछाई की,
पर आईंनें में खुद को मैंने हमेशा बीमार देखा है।।

मजमा बहुत था आस पास पर कोई अपना नहीं,
गम तन्हाई का मैंने हँसते - हँसते सहके  देखा है।
चेहरे पे हसीं का मुखौटा  लगाकर  भी तन्हा रहे,
अपने मन  की बातें अपने दिल से करके देखा है।।

सारी हसरतें सारे आरजू तुम्हारी  पूरी करते गये,
फिर भी जाने क्यों? तुम्हारी नजरों का अनदेखा है,
मोम सा  जलाकर  पिघला ना दूँ तुझे  तो कहना,
मैंने अक्सर पत्थरों को भी टूटकर बिखरते देखा है।।

एक मैं हूं जो तेरी मोहब्बत को सीने से लगा रखा,
यहाँ तो पल  में लोगों को लिबास बदलते देखा है।
किस से  शिकायत करूँ  किसे हौले दिल सुनाऊँ,
अपने मन की बातें अपने दिल से करके देखा है।।
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- नितेश कुमार दिवाकर
बैकुंठपुर, छत्तीसगढ़।

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