सांस लेना हुआ दूभर
इलमा अजीम
जब कोई समस्या बढ़ कर संकट में बदलने वाली हो तो उसका सामना करने और उसे रोकने के लिए सरकार और समाज को हर स्तर पर सक्रिय हो जाना चाहिए। मगर इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि दिल्ली और देश के अन्य शहरों में प्रदूषण के चरम स्थिति में पहुंचने के बावजूद न तो सरकारों को पर्याप्त सक्रियता बरतने की जरूरत लग रही है, न आम लोगों को इस बात की फिक्र है कि इसका खमियाजा उन्हें किस तरह भुगतना पड़ेगा।
दिल्ली में पिछले कई दिनों से धुंध और धुएं की वजह से लोगों को सांस तक लेने में दिक्कत होने लगी थी। हालात ऐसे थे कि लोगों के लिए घर से बाहर निकलना भी जोखिम भरा हो गया था। मगर दिवाली से एक दिन पहले हुई बारिश की वजह से मौसम में काफी राहत देखी गई। आसमान साफ हो गया था और वायु गुणवत्ता में भी काफी सुधार आया। प्रकृति की अचानक मेहरबानी से मिली इस स्थिति को संभालने की जरूरत थी, लेकिन बहुत सारे लोगों को इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं लगा। हालांकि इस बात की आशंका पहले से थी कि दिवाली के मौके पर आतिशबाजी अगर अनियंत्रित हुई तो स्थिति बिगड़ सकती है। मगर अगले दिन दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक और प्रदूषण की जैसी तस्वीर सामने आई, उससे यह एक बार फिर साफ हुआ कि लोग अपनी सेहत के सामने खड़ी चुनौती के बावजूद क्षणिक खुशियों को काबू में रखने को तैयार नहीं हैं। प्रतिबंध के बावजूद इस बार जितने बड़े पैमाने पर आतिशबाजी हुई, उसका नतीजा अगले दिन देखने को मिला। गौरतलब है कि दिवाली के दिन शाम को दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक लगभग दो सौ के आसपास था, मगर अगले दिन यह फिर चार सौ पर पहुंच गया। यह हालत देश के ज्यादातर मुख्य शहरों की थी। दिल्ली और मुंबई सहित कुछ शहरों में वायु गुणवत्ता बहुत खराब श्रेणी में पहुंचने के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण के भी पुराने आंकड़े ध्वस्त हो गए। यह समझना मुश्किल है कि जब प्रदूषण की वजह से आम जनजीवन बाधित हो रहा है, बहुत सारे लोगों के लिए सांस लेना मुश्किल हो रहा हो, सेहत संबंधी कई गंभीर चुनौतियां पेश आ रही हैं, उसे और बिगाड़ने में लोग कैसे उत्साह से हिस्सा लेते हैं? जाहिर है, यह प्रदूषण जैसे मसले पर जागरूकता के घोर अभाव और समस्या के हल को लेकर निहायत असंवेदनशीलता का ही सूचक है कि अपने सामने खड़े संकट को कम करने के बजाय लोग उसे बढ़ाने में जुटे हैं। सवाल है कि सरकारों को इस संकट का हल कुछ औपचारिक उपायों से आगे क्यों नहीं सूझ पाता। सवाल है कि इस दशा में सुधार के लिए सभी स्तरों पर पर्याप्त संवेदनशीलता कब आएगी और ठोस नीतिगत पहल कब होगी?
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