क्या ऑनलाइन शिक्षा, स्कूल की कक्षा से बेहतर विकल्प हो सकता है?
अतुल मलिकराम, बिज़नेस कंसल्टेंट और राजनीतिक रणनीतिकार
इंदौर। स्कूल की कक्षा यानि विद्यालयीन शिक्षा सर्वश्रेष्ठ है, जो अब लुप्त होने के कगार पर दिखाई दे रही है। कहीं यह हमारे समाज की सबसे बड़ी भूलों में से एक न बन जाए। पारंपरिक शिक्षा में एक निश्चित कार्यक्रम, परस्पर संचार और सख्त अनुशासन छात्रों का सटीक मार्गदर्शन करते हैं। पूरी तरह से शिक्षा ग्रहण एवं उसे कैसे आचार-विचार में लाया जाए, यह विद्यालयीन शिक्षा की कक्षाओं में छात्रों और शिक्षकों के बीच बैठने, वाद-विवाद और उनकी संगति करने से ही प्राप्त होता है, जिससे छात्रों को शैक्षिणक व सामाजिक ज्ञान सीखने को मिलता है।
स्कूल में शिक्षक बच्चों के सामने होते हैं, बच्चों को समझाते हैं, अनुशासन सिखाते हैं। शिक्षक की हर बच्चे के साथ एक अलग शैक्षणिक प्रक्रिया होती है, जो बच्चे के एक-एक मनोभाव को पढ़ सकते हैं। शिक्षक बच्चे के भाव से ही समझ जाता है कि बच्चे को कितना समझ में आया, कितना नहीं। इसके साथ ही बच्चे स्कूल जाते हैं, तो उनमें प्रतिस्पर्धा के बीज उपजते हैं, जो उन्हें सबसे आगे रहने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही, वे अपने सहपाठियों के साथ वार्तालाप, खेल-कूद और बाकी गतिविधियाँ सीखते हैं। जब भी उन्हें कोई जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो वे उसे बखूबी निभाते हैं। उनकी लीडरशिप क्वालिटी भी स्कूल में ही निखरती है।
शिक्षक हमारे गुरु हैं, जिन्हें भगवान से भी ऊँचा दर्जा प्राप्त है। जब हम अपने गुरु का आदर और सम्मान करते हैं, तो दुनिया एक समय हमारा आदर करती है। संत कबीर ने दोहे के माध्यम से यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं-
"गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।"
जिसका मतलब होता है कि गुरु और भगवान दोनों साथ में एक साथ खड़े हैं, तो हमें दोनों में से किसे पहले प्रणाम करना चाहिए, गुरु को या भगवान को? ऐसी स्थिति में गुरु को पहले प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि एक शिक्षक ही वे इंसान होते हैं, जो हमें गोविंद के बारे में बताते हैं।
गुरु का महत्व क्या है, यह हमारा इतिहास हमें बताता है, गुरु ज्ञान से ही भविष्य को आकार मिलता है। लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर मिले इस ज्ञान की बात ही कुछ और है। व्यावहारिक ज्ञान प्रत्यक्ष तौर पर ही लिया जा सकता है। गुरु का शिष्य को अपने बच्चों के समान समझ कर उनसे एक भावात्मक लगाव रखना और उनका सही मार्गदर्शन करना ऑनलाइन शिक्षा में संभव नहीं है।
लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि ऑनलाइन शिक्षा को उन्नीसा कहा जाए, क्योंकि कोरोना जैसी महामारी में ऑनलाइन शिक्षा एक वरदान के रूप में साबित हुई है। अतः इसकी उपयोगिता को नाकारा नहीं किया जा सकता। विद्यालयीन शिक्षा व ऑनलाइन शिक्षा दोनों को साथ लेकर चलना ही समय की माँग है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य ही लोगों को शिक्षित बनाना है।
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