वैवाहिक बाजार की उथल पुथल

प्रो. नंदलाल मिश्र
आज के जमाने में लड़के लड़कियों की शादियों का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है।सामान्य स्तर या मिडिल क्लास के लोग इस बाजार में दिग्भ्रमित हो चुके हैं। मां बाप की भूमिका नगण्य होती जा रही है।विवाह एक संस्कार होता था तथा पूरे वर्ष उसकी खुशियां और तैयारी में समय निकल जाया करता था।घर में उल्लास का माहौल होता था। हर आदमी अपने तरह से उस खुशी को मनाता था।घर के बुजुर्ग सीना चौड़ा करके शादी की बात किया करते थे।लड़की वाले दो तीन साल लड़का तलाशने में समय देते थे।शादियां रिश्तेदारों और पंडित के बताने से हुआ करती थीं।कुल मिलाकर घर में शादी यदि तय हो जाती थी तो पूरे परिवार में एक अजीब खुशी और तैयारी चलती रहती थी।गांव के लोग हिसाब किताब लगाते रहते थे कि इस वर्ष गांव में किसके किसके परिवार में शादी है।सभी लोग कुछ न कुछ ख्वाब मन में पालते रहते थे।मार्केटिंग होती थी। चालाक लोगों को मार्केटिंग के लिए ले जाया जाता था।
कपड़े की मार्केटिंग, गहनों और आभूषणों की मार्केटिंग, शामियाना, ढोल नगाड़े, पता नही कितने काम हुआ करते थे। नाऊ रिश्तेदारियों में जाकर निमंत्रण कार्ड बांटता था।रिश्तेदार कहारों से सामान भेजते थे।कहने का आशय यह है कि शादी निर्धारित होने का अर्थ था कि पूरे गांव के लिए काम का मिल जाना।उसी काम में पूरा गांव सहयोग करने को आतुर रहता था।कुछ लोग न पूछे जाने पर मुंह भी फुलाकर बैठे रहते थे।उनको मनाया जाता था।

        

समय गुजरा।जमाना परिवर्तन और विकास के वेग में बह गया।फिल्मों ने समाज में अजीबोगरीब परिवर्तन ला दिया तो थोड़ी बहुत बची परंपराएं भूमंडलीकरण और इंटरनेट के तूफान में ऐसी उड़ी जैसे भीषण चक्रवात में बड़े बड़े वृक्ष टावर और मकानें उड़ जाती हैं।यहां तक तो ठीक था कि लोग भौतिक तकनीकी और प्रौद्यौगिकी का खुल कर उपयोग करने लगे पर हमारी सांस्कृतिक मर्यादाएं और परंपराएं उखड़ने लगेगीं ऐसा नहीं सोचा गया था।हमारे संस्कार उड़कर बिखर जायेंगे ऐसी कल्पना भी किसी ने नहीं की होंगी।प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने इस तरफ इशारा तो किया था और संस्कृतिकरण का संप्रत्यय भी दिया था पर इतना तेज हो जायेगा यह कल्पनातीत है।ब्राह्मण अपने कर्तव्य और धर्म से विरत होना शुरू हुए थे।उन्होंने आधुनिकता को अपनाना शुरू कर दिया था।पर धीरे धीरे यह प्रवृत्ति सभी उच्च जातियों में देखने को मिली।अब तो समूचा समाज ही सब कुछ छोड़ चुका है।किस तरह के हालात समाज में बन गए हैं इसका वर्णन करना अत्यंत कठिन है।
       मात्र दो संस्कार समाज में बचे थे,एक विवाह और दूसरा दाह संस्कार।बाकी कबके खतम हो गए।सोलह संस्कारों में व्यक्ति के व्यक्तित्व को शोधित और परिष्कृत किया जाता था पर अब इसकी चिंता किसी को नही है।व्यक्तित्व समग्रता की ओर से चलकर एकांगी हो चला है।समाज में पाशविकता बढ़ रही है।जिस तरीके से पशु अकेले  ही अपना उदर भरण करते हैं और प्रजनन का कार्य करते हैं ठीक वैसे ही अब मानव समाज भी चल रहा है।उसे पैसा कमाने की धुन लगी हुई है क्योंकि उसे मालूम है कि आज के समाज में पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।अतः पहले पैसे की व्यवस्था करो।पैसे की व्यवस्था करने के लिए भले ही इंसान का कत्ल करना पड़े करो।जब समाज इस स्तर पर पहुंच गया हो तो आप ऐसे समाज और इसमें रहने वाले इंसानों के मूल्य स्तर को आप आसानी से समझ सकते हैं।पैसे की व्यवस्था हो जाने पर यौन संबंधों की बात प्रमुखता से अपना स्थान बना रही है।यौन संबंध अर्थात माया नगरी।आज का इंसान यौन संबंधों को बनाने के पीछे अपने सारे मूल्य ताख पर रख देता है।माया की छाया में उसकी अनंत भटकन उसे कहां ले जाकर पटकती है उसे अहसास तक नहीं होता और जब तक अहसास होता है तब तक उसकी सारी दुनिया लुट चुकी होती है।उसके हाथ में सिर्फ पश्चाताप के दो चार आंसू बचे होते हैं।
      समय इतना बदल चुका है कि अपने ही लड़के आपकी बातें नही सुनते।और तो और वे उल्टे मां बाप को ही शिक्षा देते हैं। मां बाप समझाते हैं बेटा ऐसा कर लो यह तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा तो उनका जवाब होता है आप पुराने खयालों के आदमी हैं।अब जमाना बदल गया है।सर्वाधिक संकट बच्चों की शादियों पर आ खड़ा हुआ है।अब शादियों का बड़ा बाजार बन गया है।पता नही कौन कौन प्लेटफार्म इसके लिए तैयार हो चले हैं।जीवन साथी से लेकर मैट्रिमोनी और शादी डॉट कॉम तक शादी के माध्यम बन चुके हैं।शादी कहां करनी है,किससे करनी है,कब करनी है,ये सभी बातें लड़के और लड़कियां निर्धारित कर रहे हैं।यह निर्णय मां बाप के हाथ से निकलकर बेटे बेटियों के हाथ में आ गया है।अब शादियां तय नहीं की जाती है बल्कि मैनेज की जा रही हैं।लड़का लड़की फोन से छह महीने तक बात करते हैं,कहीं स्थान फिक्स कर मिलते हैं बाते करते हैं,एक दूसरे को समझते हैं फिर निर्णय लेते हैं कि शादी करनी है या नही।ऐसे में पूर्व समय में जो भूमिका मध्यस्थों की हुआ करती थी वह खतम हो चुकी है।अब बीच में कोई पड़ना भी नही चाहता।ऐसे में एक लड़का न जाने कितने लड़कियों से मिलता है उसके साथ घूमता है और कितनो को रिजेक्ट करता है। मां बाप मौन तमाशा देखते हैं और अपनी छिछा लेदर अपनी नजरों से देखते हैं।किंकर्तव्यविमूढ़ हो हाथ डाल देते हैं।एक लड़की का पिता सौ बार हताश होता है निराश होता है।वैवाहिक बाजार में सौदा विक्रय की वस्तु बन जाती है।और शादी भाग्य से हो भी गई तो दो चार साल बाद तलाक की स्थिति निर्मित हो जाती है।
      अब जबकि शादियां पच्चीस से पैंतीस वर्ष की उम्र में हो रही हैं तो दो परिपक्व लोग एक दूजे से शादी के बंधन में बंधते हैं।वहां लड़की को ससुराल में कुछ आत्मसात करने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि वह परिपक्व है।उसे बस समायोजन करना है और वह भी अपनी शर्तों पर।जब वह अपनी शर्तों पर चलती है तो वहीं से परिवार में कलह की स्थिति निर्मित होती है। चूकि बीच में कोई मध्यस्थ नही होता तो फिर वे किसी से दबते भी नही।इसका परिणाम दो तरह से घटित होता है।पहला परिवार में कलह और कलह से बचने के लिए पति द्वारा पत्नी को अपने साथ रखना।जब वह पत्नी को साथ रखता है तो पत्नी के मोह पाश में फंसकर मां बाप की तिलांजलि और परिवार विघटन की शुरुआत।यही चक्र समाज में चल रहा है। मां बाप की हिम्मत नही रह गई है कि बिना बच्चों से पूछे वे कहीं रिश्ता तय कर दें।
     प्रश्न यही खड़ा होता है कि क्या हम इतना बाध्य हो चुके हैं कि अपनी नजरों के सामने सब कुछ होता देख रहे हैं और कुछ भी कर नही पा रहे हैं।इसे मनोविज्ञान की भाषा में अर्जित विवशता की संज्ञा दी जाती है।हम विवश हैं किंकर्तव्य विमूद हो चले हैं,अंतर्द्वंद्व में फंस चुके है।परिवर्तन इससे भी तेज होगा ।अपनी आंखो से देखेंगे पर उस भयावहता को रोक न पाएंगे क्योंकि यह विवशता तो हमीं ने सीखी है।समय रहते जग गए होते तो आज की अंधी दौड़ से बच जाते।नियंत्रित करना होगा अपने आप को और बदलते वक्त की नजाकत को भी समझना होगा तभी हम बहाव को रोक सकेंगे अन्यथा हमें बहने से कौन रोकेगा।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय, विवि चित्रकूट,सतना)

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