बढ़ती विवेक शून्यता
पिछले कुछ समय से समाज के आम व्यवहार में जिस तरह की प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं उससे लगने लगा है कि लोगों के भीतर इस तरह के मूल्यों की जगह बहुत कम हो रही है। बेहद मामूली बातों पर भी जिस तरह न केवल आक्रामक और हिंसक हो जाने, बल्कि पीट-पीट कर हत्या तक कर देने जैसे मामले सामने आ रहे हैं, वे इस बात का संकेत हैं कि लोगों के लिए विवेक का इस्तेमाल करना अब कोई जरूरी बात नहीं रह गई है। सड़क पर वाहन चलाते हुए या गली-मोहल्ले में चलते या आस-पड़ोस में किसी बहुत साधारण बात पर दो पक्षों के बीच विवाद शुरू होता है और वह किसी समाधान पर पहुंचने के बजाय एक त्रासदी में खत्म होता है। सवाल है कि क्या लोगों के पास विवेक का इस कदर अभाव हो गया है कि वे बहुत छोटी बातों का भी हल निकाल पाने में नाकाम हो रहे हैं और किसी की हत्या कर देना ही उन्हें अकेला उपाय लगता है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सिर्फ आपस में टकरा जाने या किसी से वाहन छू जाने भर के बाद बेलगाम हिंसक रुख अख्तियार कर लेने वाले के भीतर इतना समझ पाने का भी विवेक नहीं बचता कि आवेश में आकर वह जो कर रहा है, उसका हासिल क्या होगा और उसके बाद उसे किन परिस्थितियों का सामना कर पड़ सकता है। किसी व्यक्ति या समाज के सभ्य होने की कसौटी यही होती है कि उसमें लोग अपने आम व्यवहार को लेकर संयत रहें, सामान्य स्थितियों में सबके साथ सलीके से पेश आएं और प्रतिक्रिया की जरूरत पड़ने पर धीरज के साथ पहले विवेक का प्रयोग करें। संवाद और सौहार्द ऐसा जरिया हैं, जो गंभीर और जटिल समस्याओं का भी हल निकाल सकते हैं। विडंबना यह है कि एक ओर अमूमन हर स्तर पर आधुनिक होने का दम भरने में कोई कमी नहीं की जाती और दूसरी ओर बहुत सारे लोगों के भीतर बर्ताव का सलीका गायब होता जा रहा है।

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