मनभावन संग जगभावन भी हो पहनावा
समय के साथ रहन-सहन और जीवनशैली में बड़ा बदलाव आया है। सामाजिक माहौल भी बदला है और व्यक्तिगत सोच का दायरा भी बढ़ा। बावजूद इसके पब्लिक प्लेस में मौजूदगी का एक शिष्टाचार जरूरी है। परिस्थिति के मुताबिक परिधान पहनना मायने रखता है। हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के किसी भी कोने में सब कुछ अपनी सहजता के मुताबिक नहीं किया जा सकता। जरूरी है कि नयी पीढ़ी भी बात को समझे।
प्रभावी व्यक्तित्व से जुड़ा शिष्टाचार
सामाजिक शिष्टाचार के बिना शिक्षित, सजग या आत्मविश्वासी होने के नाम पर कुछ अलग-सा करने की धुन अभद्रता बन जाती है। विशेष दिखने की सनक कई बार इंसान के सामान्य ज्ञान पर ही सवाल उठाने लगती है। अफसोस कि आज बहुत से युवा इस अंतर को नहीं समझ पा रहे। अलग दिखने की स्टाइलिश सनक में नयी पीढ़ी सही-गलत का फर्क ही भूल रही है। हाल ही में दिल्ली मेट्रो में बिकिनी पहनकर यात्रा करने वाली लड़की का वायरल हुआ वीडियो सामाजिक शिष्टाचार की इसी समझ को लेकर कई सवाल उठाता है। नासमझी कहें या दुस्साहस, युवा पीढ़ी की यह दिशाहीनता चिंतित करने वाली है। सार्वजनिक परिवहन के साधन का इस्तेमाल करते हुए उचित परिधान तक न चुन पाने की यह गफलत भी कई मोर्चों पर अव्यावहारिक और अजीबोगरीब व्यवहार को सामने रखती है। ऐसे में युवा पीढ़ी को समझना होगा कि प्रभावी व्यक्तित्व के लिए सामाजिक संवेदनाओं को समझने का शिष्टाचार भी आवश्यक है।
सामाजिक नियम भी जरूरी
दरअसल, समाज में जीने के भी कुछ नियम होते हैं। ऐसे वाकये युवाओं की असामाजिक सोच, अव्यावहारिक जीवनशैली और उलझन भरे मन की ही बानगी है। परिधान का शिष्टाचार तो हमारे पारिवारिक परिवेश में हर बच्चे को जीवन के शुरुआती पड़ाव पर ही सिखाया जाता है। सामाजिक परिवेश में इस सबक की स्वीकार्यता के मायने समझने को मिलते हैं। यही वजह है कि डीएमआरसी ने इस मामले को लेकर कहा है कि 'वह अपने यात्रियों से उस सामाजिक शिष्टाचार का पालन करने की उम्मीद करती है जो समाज में स्वीकार्य है।
यकीनन यह जरूरी भी है। पब्लिक प्लेस पर उपस्थिति के कुछ मापदंड हर नागरिक के लिए आवश्यक हैं। पहले से असुरक्षा से जुड़ी घटनाओं के चलते हमारे देश में महिलाओं को देह आधारित आज़ादी के बजाय वैचारिक स्वतंत्रता का विचार ज्यादा सशक्त बनाएगा।
अपनी पसंद को भी परखें
ऐसे में आज की पीढ़ी को समझना होगा कि 'माय च्वाइस' के नाम पर सार्वजनिक जीवन में मनमर्जी नहीं की जा सकती। समाज में हर इंसान की उपस्थिति का रंग-ढंग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरों को प्रभावित करता है। यही वजह है कि नागरिकों के बर्ताव की सीमा तय करने को बाकायदा नियम-कानून बने हुए हैं। मानवीय जीवन में सह-अस्तित्व के भाव और आपसी संवेदनाओं को सहेजने के लिए एक आचार संहिता है। इसमें लिखित ही नहीं बल्कि कुछ मौखिक नियम भी शामिल हैं। कुछ अर्थपूर्ण अलिखित नियम तो घर की बड़ी पीढ़ी बच्चों को सिखाती-समझाती है। सार्वजनिक स्थलों पर मौजूदगी या माध्यमों का इस्तेमाल करने के आचरण की एक नियमावली बनी हुई है। इसमें प्रशासनिक नियम और पारिवारिक परिवेश में मिला रहन-सहन का पाठ दोनों ही समाहित हैं। जरूरी है कि सयानी उम्र के बच्चे जीवन के इन बुनियादी कायदों को लेकर नासमझ न बनें। अपनी पसंद को भी परखें।
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