विकास की विसंगति से उपजी बदहाली
विश्वनाथ सचदेव
कुछ ही अर्सा पहले एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान ने घोषणा की थी कि भारत शीघ्र ही विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक ताकतों में शुमार हो जायेगा। भारत सरकार के समर्थकों और प्रशंसकों ने इस घोषणा का स्वागत किया था। फिर एक और अंतर्राष्ट्रीय संस्थान ने भारत की सोलह प्रतिशत आबादी के गरीब होने की घोषणा कर दी। फिर एक और ऐसा ही वक्तव्य आया, जिसमें भूख के सूचकांक के संदर्भ में 121 देशों में भारत का स्थान 107वां बताया गया था। यह बात उनको रास नहीं आयी जिन्होंने भारत के आर्थिक ताकत बनने की घोषणा का स्वागत किया था। कहा गया कि इस तरह की बातें करके कुछ तथाकथित वैश्विक संस्थान हमारे भारत की बदनामी करना चाहते हैं। यह तो संभव है कि किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थान का कोई आकलन ग़लत हो, यह भी संभव है कि कोई संस्थान हमारे देश को बदनाम करना चाहता हो, लेकिन ‘कड़वा-कड़वा थू और मीठा-मीठा गप’ वाली बात नहीं होनी चाहिए। भारत के आर्थिक शक्ति बनने की बात कहने वाली संस्था और भारत की जनता की भूख के आंकड़े देने वाली संस्था, दोनों, विश्व की भरोसेमंद संस्थाएं मानी जाती हैं। हमें ऐसी घोषणाएं करने वालों की नीयत पर शक करने के बजाय इन घोषणाओं से कुछ सीखने की आवश्यकता है। अर्थात‍् यह कि ये आंकड़े हमें सावधान भी करते हैं और अपनी स्थिति सुधारने की प्रेरणा भी देते हैं।



गरीबी के आंकड़ों की बात ही कर लें। हमें अच्छा नहीं लगता जब कोई कहता है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी हमारे देश में गरीबों की अच्छी-खासी संख्या है; गरीबी यानी वे जो दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाते। अच्छा है कि हमें यह बात अच्छी नहीं लगती, पीड़ा होती है हमें, होनी भी चाहिए। पर ऐसी बात बताने वाले की नीयत पर शक करने की बजाय हमें सोचना यह चाहिए कि ऐसी स्थिति क्यों है, और कैसे बदल सकते हैं हम इस स्थिति को? यह तभी संभव है जब हम पहले वस्तुस्थिति को स्वीकार करें।वस्तुस्थिति यह है कि देश की अस्सी करोड़ जनता आज भी भूखी है और हमारी सरकार को उसे मुफ्त खाद्यान्न देना पड़ रहा है। पिछले तीन साल से ये भारतीय सरकारी मदद पर आश्रित होकर जीवन जी रहे हैं। अस्सी करोड़ भारतीयों को मुफ्त खाद्यान्न देने की इस बात को हमारी सरकार अपनी उपलब्धि मानती है। यह उपलब्धि नहीं, एक विवशता है और शर्मनाक स्थिति है यह। हमें इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि देश की इतनी बड़ी आबादी अपनी ज़रूरत का खाद्यान्न अपनी कमाई से जुटाने की स्थिति में नहीं है। हकीकत यह है कि प्रति व्यक्ति आय, बेरोज़गारी, भोजन की उपलब्धि, आवास, सफाई आदि के मानकों को देखते हुए देश की लगभग एक-चौथाई आबादी आज गरीबी का जीवन जी रही है।
हाल ही में देश का वार्षिक बजट पेश किया गया था। एक जाने-माने अर्थशास्त्री के अनुसार अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने सिर्फ दो बार ‘गरीब’ शब्द का इस्तेमाल किया है! क्या यह स्थिति उस शुतुरमुर्ग वाली बात याद नहीं दिलाती जो रेत में अपना सिर गढ़ा कर यह मान लेता है कि खतरा है ही नहीं? खतरा हमारे सिर पर मंडरा रहा है। उसकी अनदेखी करके नहीं, उसका मुकाबला करके ही स्थिति सुधारी जा सकती है। यह मुकाबला जानने के पहले हमें जानना होगा कि स्थिति है क्या? स्थिति यह है कि देश का गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। देश की कुल संपत्ति का साठ प्रतिशत आज पांच प्रतिशत आबादी के पास है। निचली पचास प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल तीन प्रतिशत संपदा है।
आर्थिक विषमता की यह खाई विकास के हमारे सारे दावों को अंगूठा दिखा रही है। पिछले 75 सालों में विकास हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है, पर इस विकास की गति धीमी भी है और यह विकास नितांत अपर्याप्त भी है। आंकड़े बता रहे हैं कि आज हमारे देश में 43 करोड़ श्रमिक हैं, इनमें आधे से भी कम लोगों के पास रोज़गार है। जहां तक स्वास्थ्य का सवाल है, देश की आधी से अधिक महिलाओं के शरीर में खून की कमी है। छह महीने से लेकर 23 माह के बच्चों में से सिर्फ ग्यारह प्रतिशत बच्चों को ही पूरा भोजन मिल रहा है। देश के लगभग एक-तिहाई बच्चे अपर्याप्त वजन वाले हैं। सरकार दावे कर रही है कि हर घर में नल पहुंचा दिया गया है, शौचालय बना दिये गये हैं, हर गांव में स्कूल बन गये हैं, प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर तक की शिक्षा-व्यवस्था हो चुकी है। पर हकीकत क्या है?आज देश के स्कूलों की स्थिति यह है कि सवा लाख से अधिक स्कूलों में सिर्फ एक अध्यापक पहली से पांचवीं तक के बच्चों को पढ़ा रहा है और आईआईटी जैसे उच्च संस्थानों की स्थिति यह है कि वहां पर्याप्त अध्यापक नहीं हैं- 8153 स्वीकृत स्थानों में 3253 स्थान रिक्त पड़े हैं यानी पर्याप्त पढ़ाने वाले ही नहीं हैं। नये-नये आईआईटी और आईआईएम बनाये जाने की घोषणाएं तो हो रही हैं, पर हकीकत यह है कुछ ही अर्सा पहले तमिलनाडु में एक ‘एम्स’ बना दिये जाने की घोषणा हुई थी। विधानसभा में घोषणा तो हो गयी पर अभी ‘एम्स’ की चारदीवारी भी नहीं बनी थी!
कथनी और करनी का यह अंतर कब मिटेगा? दिसंबर-2022 में देश में बेरोज़गारी की दर आठ प्रतिशत थी; शहरी भारत में 10.09 प्रतिशत और ग्रामीण भारत में 8.3 प्रतिशत। प्रतिशत में बात पूरी समझ नहीं आती। सीएमआईई के अनुसार हमारे भारत में आज 5.3 करोड़ लोगों के पास रोज़गार नहीं है। इनमें से 3.5 करोड़ लोग लगातार काम खोज रहे हैं। डेढ़ करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं जो काम करना तो चाहते हैं, पर एक्टिव होकर काम की तलाश नहीं कर रहे अर्थात‍् वे लोग बुरी तरह निराश हो चुके हैं।यह निराशा किसी एक क्षेत्र में नहीं है। स्थिति गंभीर है। इस गंभीरता को समझा जाना ज़रूरी है।
सवाल बेरोज़गारी का हो या महंगाई का; स्वास्थ्य का हो या पढ़ाई का, उत्तर स्थिति की गंभीरता को समझकर ईमानदार कोशिश में ही निहित है। जुमले उछालने से बात नहीं बनेगी। आज हम दुनियाभर के उद्योगों को भारत आने का निमंत्रण दे रहे हैं, उद्योगों के आने की घोषणाएं भी हो रही हैं। अच्छी बात है यह। पर क्या यह भी एक हकीकत नहीं है कि पिछले आठ सालों में हर साल औसतन एक लाख से अधिक भारतीय देश छोड़कर कर चले गये हैं? ये काम की तलाश वाले नहीं हैं, पढ़े-लिखे योग्य लोग हैं जिन्हें विदेश अपने देश से ज़्यादा प्यारा लग रहा है। आखिर क्यों? कौन देगा उत्तर इस ‘क्यों’ का?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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