88 फीसदी दिल्लीवासियों में विटामिन डी की कमी

 एम्स के अध्ययन से पहले एसोचैम द्वारा जारी एक रिपोर्ट में सामने आया है कि 88 फीसदी दिल्लीवासियों में विटामिन डी की कमी है। यह स्थिति दिल्ली में ही नहीं अपितु कमोबेश देश के सभी महानगरों में देखने को मिल जाएगी। इसका निदान हमारी जीवन शैली में थोड़ा से बदलाव करके ही पाया जा सकता है। पर इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आधुनिकता की दौड़ में हम प्रकृति से इस कदर दूर होते जा रहे हैं कि जल, वायु, हवा, धूप, अग्नि और ना जाने कितनी ही मुफ्त में प्राप्त प्राकृतिक उपहारों का उपयोग ही करना छोड़ दिया है। ऐसा नहीं है कि लोग जानते नहीं हैं पर जानने के बाद भी आधुनिकता का बोझ इस कदर छाया हुआ है कि हम प्रकृति से दूर होते हुए कृत्रिमता पर आश्रित होते जा रहे हैं। दरअसल हमारी जीवन शैली ही ऐसी होती जा रही है कि प्रकृति की जीवनदायिनी शक्ति से हम दूर होते जा रहे हैं। कुछ तो दिखावे के लिए तो कुछ हमारी सोच व मानसिकता के कारण।

विटामिन डी की कमी के कारण हजारों रुपए के कैमिकल से बनी दवा तो खाने को हम तैयार हैं पर केवल कुछ समय का धूप सेवन का समय नहीं निकाल सकते हैं। हम स्कूलों में आयोजित मड़ उत्सव को तो धूमधाम से मनाने को तैयार हैं पर क्या मजाल जो बच्चे को खुले में खेलने के लिए छोड़ दें। मिट्टी में खेलने और खेलते खेलते लग भी जाने पर प्राकृतिक तरीके से ही इलाज भी हो जाता है। तीन से चार दशक पुराने जमाने को याद करें तो कहीं लग जाने पर खून आता रहे तो वहां पर स्वयं का मूत्र विसर्जन करने या मिट्टी की ठीकरी पीस कर लगाने या चोट गहरी हो तो कपड़ा जलाकर भर देने या खून लगातार आ रहा हो तो बीड़ी का कागज लगा देना तात्कालिक ईलाज होता था। आज जरा-सी चोट लगते ही हम हॉस्पिटल की ओर भागते हैं। यह सब तब होता था जब टिटनेस का सर्वाधिक खतरा होता था। यह कटु सत्य है कि योरोपीय देश प्रकृति के सत्य को स्वीकारते हुए प्रकृति की ओर आने लगे हैं। खाना खाने से पहले हाथ धोने की जो हमारी सनातन परंपरा रही है उस ओर विदेशी लौटने लगे हैं। अभियान चलाकर हाथ धोने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। क्योंकि अब समझ में आने लगा है कि बाहर से आने पर हमारे शरीर व हाथों में कितने नुकसानदायक बैक्टेरिया होते हैं और वह बिना हाथ धोए खाना खाने पर हमारे शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं और हमारे सिस्टम को तहस नहस कर देते हैं। स्कूलों में मड़ उत्सव या रेन डे मनाने का क्या मतलब है, इनमें भी हम बड़े उत्साह से भाग लेते हैं जबकि बरसात में बच्चा जरा-सा भीग जाए तो हम उसके पीछे पड़ जाते हैं। एक जमाना था तब पहली बरसात में क्या बड़े-क्या छोटे नहा कर आनंद लेते थे। यह केवल आनंद की बात नहीं बल्कि गर्मी के कारण हुई भमोरी का प्राकृतिक इलाज भी था। आज हम ना जाने कौन कौन से पाउडरों का प्रयोग करने लगते हैं।
ऐसा नहीं है कि विटामिन डी की कमी या प्रकृति से दूर होने की स्थिति हमारे देश में ही है। अपितु यह विश्वव्यापी समस्या बनती जा रही है। कैलिफोर्निया के टॉरो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में सामने आया है कि दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों ने खुले में समय बिताना छोड़ दिया है। बाहर जाते हैं तब दुनिया भर के पाउडर, सनस्क्रीन और ना जाने किस किसका उपयोग करके निकलते हैं जिससे शरीर को जो प्राकृतिक स्वास्थ्यवर्द्धकता मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पाती है और यही कारण है कि आए दिन बीमारियां जकड़ती रहती हैं। यहां तक कि नई नई और गंभीर बीमारियों से ग्रसित होने लगे हैं।
कोरोना ने हमें बहुत कुछ समझाने का प्रयास किया है। हमारी हैसियत और ताकत को भी कोरोना ने आईना दिखा दिया है। जर्नल सांइटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकल कर आया है कि गंभीर कोविड की स्थिति में भी विटामिन डी की बदौलत जीवन बचाया जा सकता है। आयरलैंड के ट्रिनिटी कालेज, स्काटलैंड के एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी और चीन के झेजियांग यूनिवर्सिटी की एक टीम ने विटामिन डी को जीवन रक्षक कारगर के रूप में माना है। दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों ने यह माना है कि विटामिन डी की पूर्ति होने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और अन्य बीमारियां ही नहीं अपितु कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में भी इसे कारगर माना गया है। कोरोना महामारी से बचाव के लिए अन्य कारगर उपायों के साथ ही दुनियाभर के चिकित्सकों ने एक राय से इम्यूनिटी बढ़ाने पर जोर दिया है। कोरोना के ईलाज और उसके बाद पोस्ट कोविड में चिकित्सकों ने जो दवाएं प्राथमिकता से लेने की सलाह दी है या जिन पर जोर दिया है उनमें विटामिन सी, विटामिन डी, जिंक और आयरन प्रमुख हैं। विटामिन, जिंक और आयरन की कमी को हम घर बैठे अपनी दिनचर्या और खान पान से पूरा कर सकते हैं। पर यह निराशाजनक स्थिति है कि हम महंगी से महंगी दवाएं खाने के लिए तैयार हैं पर अपनी दिनचर्या या खानपान में बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि हमारी कैमिकल्स और महंगी दवाओं पर निर्भरता अधिक बढ़ने के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होने लगी है।
दरअसल हमें दवाओं, कैमिकल्स पर निर्भरता को कम कर प्रकृति से रूबरू होना होगा। इसके लिए सरकारों के साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं और गैरसरकारी संगठनों को जागरूकता अभियान चलाना होगा। प्रकृति से रूबरू होकर ही हम इम्यूनिटी बूस्ट कर सकेंगे और सही मायने में प्राकृतिक रूप से इम्यूनिटी बूस्ट करके ही हम बीमारियों से जूझने में सफल हो सकेंगे।

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