कौशल विकास हो प्राथमिकता

- विजय उपाध्याय
राजनीतिक दल यह अच्छे से समझ चुके हैं कि ‘युवा’ हो रहे देश में युवाओं के साथ के बिना सत्ता मुश्किल है। तभी तो हरियाणा सहित छह राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने युवाओं को लुभाने, रिझाने और मनाने के लिए प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में भी आरक्षण व्यवस्था लागू की है। यह बात अलग है कि अभी तक पूरी तरह किसी भी राज्य के युवाओं को यह अधिकार नहीं मिला है। हरियाणा के बाद अब झारखंड सरकार भी अगले साल जनवरी से प्राइवेट सेक्टर की 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय युवाओं के लिए रिजर्व करने जा रही है।


वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव हरियाणा के लिए खास थे। भाजपा सत्ता में थी और मनोहर लाल के नेतृत्व में ‘75 प्लस’ के नारे के साथ चुनाव लड़ा गया। पांच साल की एंटी-इनकम्बेंसी भी थी और भी दूसरे राजनीतिक कारण थे कि भाजपा चालीस का आंकड़ा मुश्किल से छू पाई। इनेलो से अलग होकर अस्तित्व में आई दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी (जजपा) ने इन चुनावों में ऐसा प्रदर्शन किया कि सत्ता की ‘चाबी’ उसके हाथों में आ गई। जजपा को 10 सीटों पर विधायक मिले। नब्बे हलकों वाली हरियाणा विधानसभा में भाजपा को दूसरी बार सत्तासीन होने के लिए छह विधायकों की जरूरत थी। ऐसे में उसे 10 विधायकों वाली जजपा का साथ मिला। जब दो दल मिलकर सरकार बनाएंगे तो लाजमी है कि चुनावी मुद्दों पर भी सौदेबाजी हुई होगी। गठबंधन की सरकार में डिप्टी सीएम बने दुष्यंत सिंह चौटाला प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में मूल निवासी युवाओं को 75 प्रतिशत आरक्षण देने का अपनी पार्टी का चुनावी वादा पूरा करवाने में कामयाब रहे।हरियाणा विधानसभा ने 2020 में ‘हरियाणा राज्य स्थानीय व्यक्ति रोजगार अधिनियम, 2020’ करने के लिए विधेयक पारित किया। इसमें अड़चनें भी आईं, लेकिन दूर कर ली गई। पहले 50 हजार तक वेतन वाली नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय लिया था। स्थानीय कंपनियों व उद्यमियों की मांग और नाराजगी के बीच 50 की बजाय 30 हजार तक वेतन की नौकरियों में इस कानून को लागू करने की सहमति बनी। 15 जनवरी, 2021 से इसे राज्य में लागू करने का नोटिफिकेशन भी जारी हो गया।फरीदाबाद इंडस्ट्रियल एसोसिएशन व अन्य ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में सरकार के फैसले को चुनौती दी। दलील दी गई कि प्राइवेट सेक्टर में योग्यता और कौशल के आधार पर लोगों का चयन होता है। अगर सरकार के दबाव में नौकरियां दी गई तो वे अपना व्यापार नहीं कर सकेंगे। हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले पर रोक लगा दी। राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा लगाए गए स्टे को हटा दिया। हालांकि अंतिम फैसला हाईकोर्ट पर ही छोड़ दिया। इस बीच, रोजगार के लिए रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया जारी रखने की अनुमति सरकार को दे दी। बहरहाल, मामला हाईकोर्ट में ही लंबित है और प्रदेश के युवाओं को इंतजार है कि कब 75 प्रतिशत आरक्षण के तहत उन्हें स्थानीय कंपनियों व उद्योगों में रोजगार मिलेंगे। प्रदेश की उन सभी प्राइवेट कंपनियों, उद्योगों, ट्रस्ट आदि में यह फैसला लागू होना है, जहां स्टॉफ की संख्या 10 से अधिक है। बेशक, इस तरह के कानून संविधान की मूल भावना के खिलाफ ही माने जा रहे हैं। चूंकि संविधान में सभी को बराबरी का हक दिया हुआ है। हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी इस तरह के कानून बने हुए हैं। विडंबना यह है कि इन राज्यों में या तो यह कानून सही से लागू नहीं हो पाया है या फिर कोर्ट-कचहरी के चक्कर में लटका हुआ है। बेशक, हरियाणा ने कोशिश की है कि कंपनियों पर फैसला थोपने की बजाय प्रदेश के युवाओं को इस योग्य बनाया जाए कि प्राइवेट सेक्टर के लोग उन्हें राजी-राजी अपने यहां रखें। इसके तहत युवाओं को स्किल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के तहत ट्रेनिंग भी देने की व्यवस्था शुरू की गई। मार्केट में डिमांड के हिसाब से युवाओं को तैयार किया जा रहा है ताकि प्राइवेट सेक्टर में जाने के बाद वे मार न खाएं। हरियाणा को लेकर प्राइवेट सेक्टर के लोगों के अनुभव बहुत अच्छे नहीं हैं। पूर्व में गुरुग्राम मारुति और होंडा सहित कई कंपनियों में बड़े विवाद हो चुके हैं। श्रमिकों के आंदोलन की वजह से कई दिन काम प्रभावित रहे हैं। शायद, ये विवाद भी प्राइवेट सेक्टर के लोगों द्वारा किए जा रहे विरोध का कारण हो सकते हैं। आमतौर पर किसी भी राज्य के उद्योगपति और कंपनियों के मालिक स्थानीय युवाओं की बजाय दूसरे राज्यों के लोगों को नौकरियों में तवज्जो देते हैं। स्थानीय होने के चलते यूनियन भी जल्दी बनती हैं और प्रभावी भी रहती हैं।
बहरहाल, हरियाणा की गठबंधन सरकार का यह ‘सपना’ अभी अधूरा है। झारखंड की सरकार भी नये साल से इसे अपने यहां लागू तो करने जा रही है, लेकिन कितनी कामयाब होगी, इस पर संशय ही बना रहेगा। स्थानीय युवाओं को रोजगार की शुरुआत सबसे पहले महाराष्ट्र में हुई थी। बाल ठाकरे के समय उठी मराठी मानुष की आवाज कारगर रही। हालांकि यह फैसला दूसरे राज्यों में नाराजगी का कारण भी बना। धीरे-धीरे कई राज्य इसी दिशा में आगे बढ़े। 

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