हो जिम्मेदारी का अहसास

नेताओं के बड़बोले व मर्यादाओं का अतिक्रमण करते बयान गाहे-बगाहे सुर्खियों में रहते हैं। जिसको लेकर यह विमर्श जारी रहता है कि इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। बहरहाल, यह निर्विवाद सत्य है कि खास लोगों व आम लोगों के लिये अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब निरंकुश व्यवहार कदापि नहीं है। खासकर किसी राजनेता को भी इस बात की छूट कदापि नहीं है कि वह जो मन में आये कह दे। सामाजिक रूप से भी नई पीढ़ी अपने नेतृत्व के सार्वजनिक व्यवहार से प्रभावित होती है। आम धारणा रही है कि कहीं न कहीं वे अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण करते हैं। यह सामान्य मत है कि नेताओं के बयान संयमित और आम आदमी के लिये प्रेरणादायक होने चाहिए। जैसे कि स्वतंत्रता आंदोलन व उसके कुछ वर्षों तक स्वतंत्र भारत में देखा जाता था। अब अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में साफ किया है कि आम आदमी की तरह ही इसकी निर्धारित सीमाओं से इतर किसी की अभिव्यक्ति पर कोई बंधन नहीं लगाया जा सकता। साथ ही यह कि किसी जनप्रतिनिधि, मसलन सांसद-विधायक, के बयान को सरकार की राय के रूप में नहीं देखा जा सकता। देश की शीर्ष अदालत की पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने साफ किया कि अभिव्यक्ति की जो आजादी अनुच्छेद 19(2) के तहत मिली है उसे और सीमित नहीं किया जा सकता। हालांकि, बैंच में शामिल न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने अलग राय रखते हुए समाज में कटुता फैलाने वाले बयानों का संदर्भ देते हुए कहा कि जिम्मेदार पदों पर आसीन लोगों को संयमपूर्ण भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इससे समाज में वैमनस्य बढ़ता है। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में सक्रिय नेताओं को जवाबदेह बनाने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि समाज में सद्भाव कायम रह सके। हालांकि उनका मानना था कि इस गंभीर मुद्दे पर संसद को ही पहल करनी चाहिए। निस्संदेह, समय के गंभीर सवालों पर न्यायपालिका की भूमिका एक मार्गदर्शक की होती है। जिसमें निर्णायक भूमिका तो विधायिका व कार्यपालिका को निभानी होती है। यह देखने वाली बात है कि देश की संसद इस गंभीर मुद्दे पर क्या पहल करती है। स्वस्थ लोकतंत्र में इसके मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिये राजनीतिक नेतृत्व का गरिमामय व्यवहार अनिवार्य शर्त है। जिसकी जरूरत शीर्ष अदालत भी महसूस करती रही है।

जैसा कि एक दुराचार की घटना में उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री व सपा नेता के बेलगाम बयान के आलोक में शीर्ष अदालत में इस मुद्दे पर न्यायिक विमर्श हुआ। हालांकि शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद सपा नेता ने माफी मांग ली थी। इस घटनाक्रम के संदर्भ में विमर्श आगे बढ़ा कि क्या ऐसे नेताओं के बोलने पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसी संदर्भ में शीर्ष अदालत की बैंच ने कहा कि किसी भी तरह के प्रतिबंध से अभिव्यक्ति की आजादी बाधित होती है। लेकिन इसके बावजूद नैतिकता के आधार पर किसी भी नेता को अपने सार्वजनिक व्यवहार को संयमित रखना ही चाहिए। हालांकि आम जन को यह सवाल जरूर मथेगा कि किसी नेता का कोई बयान उसका निजी है या वह पार्टी लाइन पर बोल रहा है। जिसकी स्पष्ट व्याख्या के यक्ष प्रश्न अभी बाकी हैं। हाल के दिनों में कुछ नेताओं के बेलगाम बोल इस समस्या के समाधान की जरूरत बताते रहे हैं। यह सर्वविदित है कि अकसर बेतुके बोल एक वर्ग व समूह को उद्वेलित कर जाते हैं। जिसकी तीखी प्रतिक्रिया भी देखने में आ सकती है। जैसा कि पीठ में शामिल एक न्यायाधीश ने कहा भी कि राजनीतिक दलों को अपने नेताओं की तरफ से दिये जाने वाले बयानों को मर्यादित करवाने की दिशा में पहल करनी चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या इसके लिये कोई आचार संहिता होनी चाहिए? बहरहाल समाज में एक सामान्य व्यक्ति से लेकर विशिष्ट व्यक्ति को संयमित व्यवहार तो करना ही चाहिए।

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