मजबूत भारत का सपना
मजबूत भारत का सपना साकार करने के लिए खुला दिमाग, दूसरों के नजरिए के प्रति सहनशीलता, नई बातें सीखने का जज्बा, काम से जी न चुराना, तकनीक का लाभ उठाने की योग्यता, प्रगति और रोजगार के नए और ज्यादा अवसर, आपसी भाईचारा तथा देश और क्षेत्र का समग्र विकास हमारा लक्ष्य होना चाहिए। भारतीय संविधान की मूल भावना को ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ के रूप में व्यक्त किया गया है। दूसरे शब्दों में इसे ‘जनता की सहभागिता के द्वारा शासन’ कहा जा सकता है, यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी, सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक कल्याणकारी राज्य बने, जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। हमारे देश में संसदीय प्रणाली लागू है जिसमें संसद सर्वोच्च है क्योंकि वह कानून बनाती है, न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है और कार्यपालिका उन कानूनों के अनुसार शासन चलाती है। संसद की सर्वोच्चता का दूसरा अर्थ यह है कि मंत्रिगण अपने हर कार्य के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं और यदि प्रधानमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य ऐसा करने में विफल रहे तो संसद उन्हें हटा दे। परिकल्पना के रूप में यह एक उत्तम विचार है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण किए बिना किसी निर्णय पर पहुंचना तर्कसंगत नहीं है। भारतीय संसदीय व्यवस्था में दिखने में सरकार के तीनों अंग, यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्वतंत्र हैं, लेकिन व्यवहार में बड़ा फर्क है क्योंकि कार्यपालिका में शामिल लोगों का संसद के किसी सदन, यानी विधायिका का सदस्य होना आवश्यक है। इसका परिणाम यह है कि कार्यपालिका कानून बनाती भी है, उन्हें लागू भी करती है और शासन भी चलाती है। कार्यपालिका, यानी सरकार के पास सिर्फ कानून बनाने और शासन करने की दोहरी शक्तियां ही नहीं हैं, बल्कि व्यवहार में ये शक्तियां लगभग असीमित हैं। बहुमत होने के कारण सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया हर बिल कानून बन जाता है। संसद में विपक्ष का लाया कोई बिल पास नहीं होता। अत: संसद के आधे सदस्य तो विधायिका में होते हुए भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। यही नहीं, दरअसल खुद संसद ही अप्रासंगिक है। एक मजबूत प्रधानमंत्री कैबिनेट की सहमति के बिना भी शासन चला सकता है, अध्यादेशों के सहारे शासन चला सकता है और संसद को बाईपास कर सकता है। देश का आम नागरिक राज्य सरकारों के संपर्क में होता है, केंद्र के नहीं, और राज्य सरकारों की हालत इतनी खस्ता है कि धन के मामले में वे पूरी तरह से केंद्र पर निर्भर हैं। जब राज्य सरकारें इतनी विवश हैं, तो वे नागरिकों का भला क्या करेंगी? इसलिए अब यह जनता पर मीडिया, बुद्धिजीवियों और आम जनता पर मयस्सर है कि वे खुले दिमाग से सोचें, ‘मत’ के बजाय तथ्यों को अधिमान दें ताकि हम संसदीय प्रणाली की खामियों को दूर करने की दिशा में अपेक्षित कदम उठा सकें।
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