आरक्षण फैसले का निहितार्थ

आखिरकार शीर्ष अदालत ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देने वाली व्यवस्था को हरी झंडी दे दी है। हालांकि, कोर्ट ने कानून को संविधान सम्मत बताया है, लेकिन इस मुद्दे पर राजनीति की अंतहीन कथा आरंभ हो सकती है। बहरहाल, देश के राजनीतिक नेतृत्व को यह सोचना होगा कि आरक्षण सिर्फ और सिर्फ सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का साधन है, राजनीति का हथियार नहीं। वहीं यक्ष प्रश्न यह भी कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा देश अब तक आरक्षण के वास्तविक लक्ष्यों को क्यों हासिल नहीं कर पाया? क्यों तमाम बिरादरियों में आरक्षण की आकांक्षा नये सिरे से बलवती होती जा रही है। पांच सदस्यीय पीठ द्वारा बहुमत से दिये गये फैसले के बावजूद न्यायाधीश यू.यू. ललित और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट ने असहमति जताते हुए इसके औचित्य पर प्रश्न चिन्ह उठाये। निस्संदेह, देश में सदियों से वंचित-प्रताड़ित समाज को बराबरी के स्तर पर लाने के प्रयासों में संविधान सभा के सदस्यों ने आरक्षण की व्यवस्था की थी। जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति, जनजातियों तथा पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण के जरिये समानता का हक देने का प्रयास किया गया था। यह माना गया कि शिक्षा और रोजगार में आरक्षण से उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी, वे समाज में समता का स्थान पा सकेंगे। संसद ने 103वें संविधान संशोधन के जरिये 2019 में सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस फीसदी आरक्षण देने हेतु कानून बनाया था। आरक्षण को वंचितों व पिछड़ों का अधिकार बताते हुए इस कानून को कालांतर शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर पांच सदस्यीय पीठ का फैसला अब आया है। निस्संदेह, अदालत के इस फैसले के तमाम प्रभाव सामाजिक व राजनीतिक रूप में नजर आयेंगे। हालांकि, अधिकांश राजनीतिक दलों ने इस फैसले का स्वागत किया है, लेकिन कई संगठनों ने इसका विरोध भी किया है। वहीं कानून के समर्थक कह रहे हैं कि जब अनुसूचित जाति,जनजाति तथा पिछड़ों के लिये निर्धारित पचास फीसदी आरक्षण में कोई बदलाव नहीं किया गया है तो इस विरोध का क्या औचित्य है। बहरहाल, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस कानून के पक्ष में फैसला देने वाले जज न्यायमूर्ति पारदीवाला ने सवाल भी उठाये हैं कि सामाजिक असमानता दूर करने में क्या वाकई आरक्षण आखिरी उपाय माना जा सकता है? सवाल यह भी कि आरक्षण की समय सीमा क्या हो क्योंकि संविधान में भी अनंत काल तक आरक्षण की वकालत नहीं की गई है। वैसे भारतीय समाज में आरक्षण का मामला हमेशा एक पेचीदा सवाल रहा है। यह भी कि भारतीय समाज के कुछ लोगों में अनुसूचित जाति व जनजाति को लेकर जो दुराग्रह या भेदभाव रहा है क्या साढ़े सात दशक बाद आरक्षण देने से उसमें बदलाव आया है? पहले कानून के जरिये प्रयास हों और फिर समाज में चेतना के जरिये गैर-बराबरी की व्यवस्था में बदलाव लाया जाये। वहीं इस बात का भी अध्ययन होना चाहिए कि जिस वर्ग के लिये आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, क्या उसको वास्तव में इसका लाभ मिल रहा है? क्या उसके जीवन में वास्तविक बदलाव आया है? निस्संदेह इस फैसले के निहितार्थ दूर तक नजर आएंगे। जो इस विषय की जटिलता में और इजाफा ही करेंगे। 

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