राहुल के तेवर

ऐसे वक्त में जब भारी बहुमत से सत्ता में आई राजग सरकार पर निरंकुश व्यवहार के आरोप लगते रहे हैं और विपक्ष धारदार नजर नहीं आता, राहुल गांधी की हल्ला बोल मुहिम वक्त की आवाज कही जा सकती है। देर आये दुरुस्त आये की तर्ज पर राहुल ने इस मुहिम से जहां कार्यकर्ताओं में जोश भरने का प्रयास किया, वहीं सुप्त पड़े विपक्ष में भी जान फूंकने का प्रयास किया। निस्संदेह, कोरोना संकट से पस्त हुई अर्थव्यवस्था और रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय हालात से महंगाई बढ़ी है, लेकिन तंत्र की संवेदनहीनता भी इसके मूल में नजर आती है। ऐसे वक्त में जब ईडी व सीबीआई जैसी सरकारी एजेंसियों के दबाव में राज्यों के क्षत्रप मुखर नहीं हो पा रहे हैं राहुल की बेबाक टिप्पणियां देश के अंतर्मन को झकझोरती हैं। पिछले कुछ समय से विपक्ष के धारदार तेवरों के लिये जानी जाने वाली बसपा व सपा जैसे राजनीतिक दलों की तरफ से भी चुनाव से इतर प्रतिरोध के स्वर कम ही सुनाई देते हैं। चुनाव के दौरान केंद्र की मोदी सरकार पर लगातार हमलावर रहने वाली तृणमूल कांग्रेस भी फिलहाल पुराने तेवरों में नजर नहीं आ रही है। हाल के दिनों में उसके एक मंत्री को कदाचार के गंभीर आरोपों में ईडी व आयकर विभाग ने दबोचा था। कमोबेश ऐसी ही स्थिति अन्य विपक्षी दलों की भी है। ले-देकर बिहार में राजग से अलग हुए जदयू के सुप्रीमो नीतीश कुमार व राजद फिलहाल भाजपा व केंद्र सरकार के खिलाफ हमलावर नजर आते हैं। निस्संदेह, राहुल की पहल से विपक्ष के तेवरों में बदलाव नजर आयेगा। राहुल का महंगाई के खिलाफ हल्ला बोल आम आदमी को जुबान देने जैसा है। निस्संदेह कोरोना काल के बाद पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था अभी सामान्य नहीं हुई है। बड़ी आबादी की आय में संकुचन हुआ है। ऐसे में महंगाई की दोहरी मार आम जनता की मुश्किलें बढ़ाने वाली है जिसके प्रति केंद्र सरकार को संवेदनशील व्यवहार दिखाने की जरूरत है।इस हल्ला बोल मुहिम के दौरान राहुल गांधी ने देश की समरसता की संस्कृति को मिल रही चुनौती का भी जिक्र किया है। उन्होंने देश में सांप्रदायिक सौहार्द को पलीता लगाने के आरोप लगाये हैं। निस्संदेह, भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और सभी धर्मों को समान तरजीह दिये जाने पर विश्वास करता है। संप्रदाय विशेष को प्राथमिकता और दूसरे को गौण मानना भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के विरुद्ध है। यदि देश में सांप्रदायिक सौहार्द कायम नहीं होता है तो हम विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पायेंगे। देश की प्रगति व विकास में सभी धर्मों व वर्गों का योगदान होता है। हम किसी की राष्ट्रभक्ति व निष्ठा को संदेह के घेरे में नहीं खड़ा कर सकते हैं। देश की सत्ता धर्म विशेष को आश्रय नहीं दे सकती। लोककल्याणकारी व्यवस्था की दरकार है कि हर नागरिक के मानवीय, सामाजिक व आर्थिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान किया जाये। यदि हम देश में सांप्रदायिक विभाजन को हवा देंगे तो इसका लाभ वे ताकतें उठाएंगी जो देश को बांटना चाहती हैं। निस्संदेह, राहुल गांधी ने समय के सवालों से संवाद किया। लेकिन इसके साथ ही उन्हें पार्टी के फोरम में पार्टी के हितों को उठाने वाले अनुभवी राजनेताओं को भी सुनना होगा। इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक के साथ पार्टी उत्थान के लिये काम करने वाले दिग्गज कांग्रेस नेताओं की उपेक्षा किसी भी तरह पार्टी के हित में नहीं कही जा सकती। हाल के दिनों ने कई दिग्गज नेताओं ने अपनी बात न सुने जाने के बाद पार्टी छोड़ दी है। जरूरी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में पार्टी के भीतर का लोकतंत्र भी मजबूत हो। यह लोकतंत्र कालांतर पार्टी को ताकत देगा और पुराने कार्यकर्ताओं को संबल प्रदान करेगा। पार्टी को मंथन करना होगा कि पार्टी का जनाधार क्यों लगातार सिकुड़ता जा रहा है। सत्ता में आने के इतर एक मजबूत विपक्ष के रूप में देश को कांग्रेस की जरूरत है। लोकतांत्रिक संस्कारों में रची-बसी पार्टी का लोकतंत्र भारतीय लोकतंत्र को नई दिशा देने में कामयाब हो सकता है।

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