वर्चस्व की राजनीति
उपराष्ट्रपति चुनाव से एक बार फिर साबित हो गया कि विपक्ष में तालमेल के बजाय बिखराव ज्यादा है। महागठबंधन की कल्पना तो ‘दिवास्वप्न’ है। विपक्षी दल राजनीतिक मानस के आधार पर अलग-अलग बंटे हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की चुनावी, राष्ट्रीय राजनीति को कोई गंभीर चुनौती नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव की तरह बीजद, वाईएसआर कांग्रेस, अकाली दल, बसपा और कुछ छोटे दलों ने उपराष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा-एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ का समर्थन किया। उन्हें लबालब वोट दिए। ये दल न तो भाजपा के राजनीतिक सहयोगी हैं और न ही एनडीए के घटक हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में बिखरे और असमंजस वाले विपक्ष के बजाय वे प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के साथ खड़े रहे हैं। राज्यसभा में किसी गंभीर और संवेदनशील बिल को पारित कराने में भी इन दलों ने सत्तारूढ़ पक्ष को समर्थन दिया है। उच्च सदन में भाजपा का अभी पूर्ण बहुमत नहीं है। हालांकि क्षेत्रीय और स्थानीय राजनीति में भाजपा, खासकर ओडिशा और आंध्रप्रदेश में, बीजद और वाईएसआर कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी पार्टी रही है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का आकलन अलग दृष्टिकोण के साथ किया जाता रहा है। उपराष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का बहिष्कार समझ के परे रहा। ममता ने यह निर्णय इसलिए लिया, क्योंकि कांग्रेस की पुरानी, अप्रासंगिक नेता मार्गरेट अल्वा की उम्मीदवारी तय करते हुए उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया। यह राजनीति और समीकरण ममता भी जानती थीं कि उपराष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्षी चुनौती महज ‘प्रतीकात्मक’ थी। देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए चुनाव का बहिष्कार एक गंभीर राजनीतिक अपराध है। सिर्फ सांसदों को ही वोट देने थे, लिहाजा तृणमूल के 34 सांसदों का बहिष्कार बेमानी रहा।बहरहाल सवाल और संदेह विपक्षी लामबंदी पर किए जा रहे हैं। 2024 के आम चुनाव में करीब 20 महीने शेष हैं। विपक्ष को जोडऩे और प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती पेश करने के, हालांकि, कोई भी प्रयास नहीं किए गए हैं। यदि ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव की उछल-कूद को ही प्रयास माना जाए, तो वे धूल में लाठी भांजने के समान हैं। सबसे गौरतलब और चिंतित यथार्थ यह है कि आज भी विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत और पार्टी कांग्रेस ही है।
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