जाति का दंश झेलते करोड़ों लोग
- कृष्ण कुमार निर्माण
सच मानिए इस समय ऐसा माहौल बन गया या बना दिया गया है कि यदि कोई भी अटपटी खबर आती है तो महीनों तक बहस जारी रहती है। ब्रेकिंग न्यूज़ चलती रहती है। खासकर धर्म से संबंधित कुछ भी ऐसा हो या वैसा हो,खबरें जारी रहती हैं। इसके साथ ही यदि कोई ऐसी खबर या ब्यानबाजी आ जाए जो सच में सामाजिक हो, जनमुद्दों की हो, समाज के एक बड़े तबके के हित की बात हो या फिर देश हित की कोई बात हो, तो वह ब्यान या खबर प्रिंट मीडिया में कहीं कोने में पड़ी सिसक रही होती है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वह मात्र एक दिन भी नहीं पकड़ती।
डिजिटल मीडिया में तो उसका चर्चा ही नहीं हो पाता। मगर धर्म, जात, मजहब की खबरें या ब्यान तीनों जगह सिर चढ़कर बोलती हैं। दो खबरें याद कीजिए, हाल की। पहली जो देश के मुख्य न्यायधीश एनवी रमणा ने कहा है कि बहुत लोग न्याय के दरवाजे तक नहीं पहुँच पाते और मौन रहकर पीड़ा सहने को विवश होते हैं। दूसरी खबर देखिए देश के पूर्व आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि यदि विकास चाहते हैं तो सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठना होगा, बहुसंख्यक अधिनायकवाद को खत्म करना होगा वरना हालात कुछ भी हो सकते हैं। क्या इन खबरों को वो स्पेस मिला जो अक्सर ऐसी-वैसी खबरों को मिल पाता है? क्या इन पर वैसी चर्चा हुई जैसी गैर-जरूरी मुद्दों पर होती रहती है। जिसे देखकर कई बार तो ऐसा लगता है कि अखबार ना ही पढ़ा, देखा जाए तो बेहतर होगा। टीवी देखना ही बंद कर दिया जाए तो ठीक रहेगा और डिजिटल मीडिया की तरफ ना ही जाया जाए तो सम्भवतः अच्छा रहेगा और यकीन मानिए बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं और करने लग रहे हैं? क्योंकि तीनों ही मीडिया और लगभग-लगभग सरकार और विपक्ष भी रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा की तरफ से पूर्णतया विमुख हो चुके हैं।


खैर, मुद्दा यह है कि जो मुख्य न्यायाधीश महोदय ने कहा है वह अति-महत्वपूर्ण है कि अधिकतर लोग मौन रहकर पीड़ा सहन करते हैं और न्याय जिसको "सामाजिक उद्धार का द्वार" कहा जाता है, वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते। सच है यह और कड़वा सच है। पर इसमें यह जोड़ना जरूरी होगा कि उस द्वार तक पहुँचने के लिए एक ब्रेकर है और वह है पुलिसिया सिस्टम जो उस द्वार तक जाने से पहले ही किसी को इस हद तक तोड़ देता है कि आदमी सिहर उठता है और उस द्वार तक जाने का नाम ही नहीं लेता, साथ ही जो व्यवस्था हमारे यहाँ है, उसका तो कोई जबाब ही नहीं क्योंकि वो व्यवस्था केवल और केवल पैसे की है, सिफारिश की है, दंगाई की है, गुंडागर्दी की है, तथाकथित सत्ताधारी दल के नेताओं, कार्यकर्ताओं की है, अफसरशाही की है क्योंकि यदि ये सब आपके पास है तो आपका कोई काम नहीं रुकेगा?आपको कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं करेगा?आपके हक़ों पर कुठाराघात नहीं होगा?आपकी हर बात सुनी जाएगी और यदि आपके पास ये सब कुछ नहीं है तो फिर आप प्लीज! मौन रहकर पीड़ा सहन करते रहिए।कोई चारा नहीं है?
इससे थोड़ा-सा आगे बढ़ते हैं माननीय मुख्य न्यायधीश महोदय आपके ब्यान को आगे बढ़ाते हुए यह बात भी है कि न केवल लोग मौन रहकर पीड़ा सहन कर रहे हैं बल्कि इस देश में लोग घुट-घुटकर, तिल-तिल मरने को विवश हैं मगर जिए जा रहे हैं और इसका कारण है--जाति,जो कभी भी नहीं जाती और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों को घुट-घुटकर जीने को विवश कर रही है। जाति का दंश जो झेलता है, ये उसे ही पता है कि वो कितना जहरीला होता है और हरपल उसे मारता रहता है। जाति का ठप्पा एक ऐसा ठप्पा है जो कभी भी आपकी पीठ से उतरेगा नहीं। वैसे कहने वाले यह बोल देते हैं कि आजकल तो ऐसा नहीं है क्योंकि वो जानते हैं कि कैसे और कब,क्या बोलना है? मगर यह कड़वी सच्चाई है कि आज के दौर में जाति के नाम पर नफरत पहले की अपेक्षा बढ़ी है। पहले इसका रूप खुला था पर आज इसका रूप खुला नहीं है, शराफत वाला लेबल लगाकर नए तौर-तरीकों से हमारे सामने है। वरना क्या बात है कि एक ही बात जब निम्न जाति वाला बोले तो वो बात गलत और बिल्कुल वही एकसमान बात, वही शब्द, वही भाव, वही बोल उच्च जाति वाला बोले तो एकदम सही, आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?यह केवल जाति के कारण होता है।
हथकंडे ऐसे अपनाए जाते हैं संस्कृति का लबादा ओढ़ाकर कि किसी को पता तक न चले और सिर भी ऊँची जाति वालों का ही ऊँचा रहे।ऐसी-ऐसी जुगत भिड़ाई जाती हैं कि निम्न जाति वालों को कार्यालय तक में ना बैठने दिया जाए,बेशक खुद कुछ भी करें। कमाल तो तब होता है जब कोई निम्न जाति का व्यक्ति उच्च जाति वाले के साथ तर्क पर बात करें तो देखिए कितना सुंदर जबाब ये ऊँची जाति वाले लोग बोलते हैं कि आपसे तर्कों में तो कोई जीत नहीं सकता,इसलिए बात हमारी ही सही है।ये हाल तो मध्यम वर्ग के निम्न जाति के लोगों का है।फिर सोचिए कि जो दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं,उनका क्या हाल होगा?वैसे कहने को हम इस देश को एक ऐसा राष्ट्र बनाना चाहते हैं जो एक विशेष नाम से पुकारा जाएगा और हम अपना आंकड़ा बताते हैं कि हम अस्सी करोड़ से ज्यादा हैं लेकिन सामाजिकता की जब बात आती है,अधिकारों की जब बात आती है,सम्मान की बात जब आती है,समानता की जब बात आती है तब हमें अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति  और आदिवासी याद नहीं आते फिर काहे को हम अस्सी करोड़ से ज्यादा हुए जब हम अपने ही लोगों को अपना मानने को तैयार नहीं है।आखिर क्यों और कब तक?कब होगी इन सवालों पर बहस?कब बोलेगा इंडिया इन पर?कब लब खोलेंगे सब लोग इन सवालों पर?आखिर कब?या फिर मुख्य न्यायाधीश द्वारा कही गई बात और रघुराम राजन द्वारा कही गई बात यों ही छिपी हुई खबर भर बनकर रह जाएगी।एक बात हमेशा याद रखिए कि नफरत और भेदभाव के रहते कभी भी विकास और उन्नति की कल्पना करना भी बेमानी होगा।आइए!सबसे पहले जाति को जड़ से खत्म करें और इसके लिए जरूरी सोच का बदलना,सोच बदलें और अपने ही लोगों के साथ किसी भी किस्म का भेदभाव ना करें।साथ ही नफरत को त्याग दें और बहुसंख्यक अधिनायकवाद को छोड़ दे, देश तभी आगे बढ़ेगा जब देश में रहने वाली जनता आगे बढ़ेगी। यह जरूरी है, बहुत जरूरी है।
(स्वतंत्र लेखक और शिक्षाविद, करनाल, हरियाणा)

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