भारत की भी तो सुनें

- गिरीश्वर मिश्र
भारत की राजनीति अब सिद्धांतों, दलगत प्रतिबद्धताओं और मुद्दों से निकल कर बाजीगरी के ऐसे खेल तमाशे का रूप लेती जा रही है जिसमें जोड़-तोड़ कर कुछ भी किया जा सकता है। आम आदमी नाटक का मूक दर्शक बना हुआ है। चुनावों के दौर में अनेक वादों और विश्वासों के साथ चुन कर जनता अपने प्रतिनिधि भेजती है कि वे पांच साल तक सरकार चलाएं। वह सब भुला बिसरा कर नेतागण 'खेला' करने लगते हैं और अपनी सुविधा-असुविधा के मद्देनजर सरकार बनाते बिगाड़ते रहते हैं। इस तरह वास्तव में सरकार पर जनता का परोक्ष नियंत्रण ही रहता है और उससे बिना पूछे मान्यवर गण पांच साल तक कुछ भी करने की छूट लिए रहते हैं। बशर्ते कुछ संवैधानिक प्रावधानों को पूरा किया गया हो।
चुनाव में विजय पाने के बाद नेता जी की जनता के लिए अपनी जिम्मेदारी वैकल्पिक हो जाती है और वह उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है। जनता धैर्य से उनकी प्रतीक्षा करती रहती है। नेता जी को उसकी सुधि प्रायः अगले चुनाव की आहट के समय ही आती है। बीच के दौर में नेताओं की जिम्मेदारी अक्सर अपने लिए अधिकाधिक ‘रेवड़ी’ एकत्र करने तक ही रह जाती है। स्वागत, अभिनंदन, सत्कार, विमोचन और लोकार्पण के समारोहों की गहमागहमी के बीच ही नेता जी का जनसम्पर्क होता है। अन्यथा आज-कल राजनीति की घोर व्यस्तताओं का सरोकार अपना पाला मजबूत रखने और हर कीमत पर सत्ता को संभाले रखने तक चुक जाता है। यह उनकी सभी प्रतिबद्धताओं और दृष्टियों से बीस पड़ता है। उसके लिए खतरे उन आकर्षणों और प्रलोभनों के इर्द-गिर्द मंडराते हैं जिनका संबंध कहीं न कहीं निजी महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा होता है। इस सिलसिले में निर्णय के प्रेरक तात्कालिक लाभ-हानि की गणना के आधार पर लिए जाते हैं।
सामान्य जीवन में इस तरह के आचरण के परिणाम अक्सर सीमित प्रभाव होते हैं, पर जन-जीवन से जुड़ने के बाद यह जरूरी हो जाता है कि इससे बचा जाए और लोक के हित को सबसे ऊपर रखा जाए। अपने और लोक कल्याण के बीच का यह द्वंद्व आज के राजनीतिक माहौल में तेजी से बढ़ता जा रहा है और निजी लाभ का पलड़ा दिनों दिन भारी पड़ता दिख रहा है। अनेक नेता अपने और सिर्फ अपने हित में लोक-कल्याण को भी देखने लगे हैं। यह स्वार्थों की लड़ाई किस तरह राजनैतिक हलकों में अशांति, बेचैनी, हिंसा और अविश्वास को जन्म देता है और सरकार की उठा-पटक तक पहुंचती रहती है। यह सभी देख रहे हैं कि राजनीतिक अस्थिरता को हथियार बना कर कैसे सत्ता का समीकरण बनाया जाता है।


लोक-हित की अनदेखी करने की फलश्रुति समाज में तनाव और असंतोष के साथ मिल कर अनुत्पादक हो रही है। यह स्थिति प्रगति की जगह ठहराव को जन्म देती है और कभी-कभी विपरीत दिशा में भी ले जाती है। पिछले दिनों दिल्ली ने साल-साल भर चलने वाले विकट प्रदर्शनों और दंगों से आम जीवन के त्रस्त होने का त्रासद अनुभव किया है। सड़कों जैसे अति सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शनकारी लोग यातायात में नियमित अवरोध पैदा कर विरोध प्रदर्शन की नई लोक तांत्रिक संस्कृति विकसित की है, जो पूरी तरह प्रायोजित रही। लोकतंत्र के विचार-केंद्र भारतीय संसद की कार्यवाही किस तरह के गतिरोध से लगातार बाधित और खंडित होती रही, यह सर्वविदित है। सांसदों के शब्द-प्रयोग का विधान लिखित रूप में करना पड़ा और कई सांसदों के निलम्बन की नौबत आई। संसद के बाहर माननीय जनों के वक्तव्य प्रायः विवाद के कारण बन रहे हैं। राजनीति में प्रचलित हो रही इन प्रवृत्तियों से लोगों के मन में निराशा पैदा होती है।
हमारे सारे नेता देश की चिंता नहीं करते, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर आज का सारा परिदृश्य उनकी राजनैतिक परिपक्वता को अवश्य प्रश्नांकित करता दिख रहा है। 'अमृत महोत्सव' भारत देश के इतिहास, देश की अस्मिता और विकास की तैयारी का अवसर होना चाहिए। इसे देश-हित में ही लिया जाना चाहिए न कि किसी विवाद से जोड़ा जाए। देश की स्वतंत्रता पूरे भारत के स्वाभिमान और स्वाधीनता के स्मरण का अवसर है। भारत की एकता और अखंडता के स्वर को सुनकर इस भारत पर्व को मनाना सबका दायित्व है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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