मेरे गांव की पगडंडी
मेरे गांव की वह पगडंडी
कहीं समतल कहीं चढ़ाई
कहीं बिल्कुल अकेली सुनसान
पत्थरों से भरी वह संकरी उतराई
पगडंडी के ऊपरी मोड़ से नीचे
दूर कहीं नजर आता था मेरा गांव
किनारे लगे थे टाहली और आम के पेड़
फल भी मिलते थे साथ मिलती थी ठंडी छांव
आज कुछ सुनसान सी हो गई है
बुजुर्गों ने तो चढ़ाई के मारे जाना ही छोड़ दिया
बच्चे भी कभी स्कूल जाते थे इसी से
आज बस में जाते हैं पगडंडी से मुंह मोड़ लिया
जब से कमबख्त सड़क बनी है
मेरा नहीं रहा किसी को भी ख्याल
दनदनाती दौड़ रही गाड़ियां सड़क पर
झाड़ियां उग आई हैं ऐसा हो गया अब मेरा हाल
पीपल का पेड़ था बीच में
जहां प्याऊ कोई लगाता था
ऊपर नीचे जाने वाले बाट बटाऊ को
ठंडा पानी मिल जाता था
बड़े बड़े पत्थरों से बनाया टियाला
थोड़ी देर करते थे वहां सब आराम
ठंडी ठंडी हवा में आ जाती थी नींद
उतर जाती थी मुसाफिर की थकान
सबकी हमसफ़र रही वह पगडंडी
उम्र भर जिसने सबका साथ निभाया
आज भूले से ही कोई आता जाता है
बच्चे बूढ़े जवान सब को जिसने था गले लगाया
मुरम्मत भी अब करता नहीं कोई
रास्ते के पत्थर भी लोग ले गए
मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया
जो मुझे इतने गहरे जख्म दे गए
रात को भी जब चले उस पर
दिया उसने हमारा पूरा साथ
गिरने नहीं दिया संभाल के रखा
पकड़े रखा मुश्किल में भी हाथ
---------------------
- रवींद्र कुमार शर्मा `घुमारवी`
बिलासपुर (हिप्र)।
No comments:
Post a Comment