समाज में पांव पसारता स्ट्रेस:कैसे निपटें
- प्रो. नंदलाल मिश्र
 स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि कार्य को आरंभ करने पर यदि घबराहट की अनुभूति होती है तो उसे भय कहते हैं।भय से दुख और बुराइयां उद्भूत होती हैं।भय से ही तनाव भी पैदा होता है।तनाव हम सभी के जीवन में कभी न कभी होता ही है पर आजकल वातावरण ऐसा विषाक्त हो चुका है कि न चाहते हुए भी आप उस चक्रव्यूह में फंस ही जाते हैं।कभी यह साधारण रूप में हमे प्रभावित करता है तो कभी गंभीर रूप धारण करके हमारे जीवन में उथल पुथल मचाता है।जब हम गंभीर रूप से इसके शिकार होते हैं तो यह हमारे जीवन शैली को प्रभावित करता है तथा हमारे मानसिक संतुलन पर आघात करता है।जब यह अनुकूलता के स्तर पर  होता है तो हमारे व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक और लाभप्रद होता है किंतु जब यह अनुकुलतम मात्रा जो भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भिन्न भिन्न होती है बढ़ जाती है तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा कर देती है।
         तनाव एक नकारात्मक संवेगात्मक अनुभव है जो पूर्वानुमानिक जैविक रासायनिक,दैहिक,ज्ञानात्मक,एवम व्यावहारिक परिवर्तनों के साथ संलग्न होता है।यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है।शोर भीड़भाड़,बुरे संबंध,परीक्षा,नौकरी के लिए साक्षात्कार इत्यादि स्ट्रेसर का कार्य करते हैं।जब व्यक्ति यह देखता है कि जो साधन उसके पास मौजूद है वह शायद पर्याप्त तो है किंतु कठिन स्थिति का सामना करने के लिए बहुत प्रयास की जरूरत होगी तो वह तनाव का अनुभव करता है।किंतु जब व्यक्ति पाता है कि कठिन परिस्थिति का सामना करने के पर्याप्त साधन नही है तो वह अत्यधिक तनाव महसूस करता है।
         यह एक प्रकार की शारीरिक टूट फूट है जो व्यक्ति से की जाने वाली मांगो के फलस्वरूप घटित होती है।जब व्यक्ति अत्यधिक तनाव में आता है तो ऐसी स्थिति में सावधानी बरतने की जरूरत होती है।तनाव पर अनुसंधान
करने वाले हेंस सिलये ने बताया है कि जब आपको लगे कि आपके जान पहचान वालों में से कोई व्यक्ति प्रतिबल या तनाव या स्ट्रेस का शिकार हो रहा है तो आप उसे अवॉइड न करें।क्योंकि यह धीरे धीरे कई चरणों से गुजरता हुआ अत्यंत उग्र अवस्था में पहुंच जाता है। सिलए ने बताया कि यह तीन चरणों में आगे बढ़ता है।प्रथम अवस्था अलार्म की होती है।ऐसी अवस्था में शरीर स्वयं इसको समझने का प्रयास करती है।शरीर तनाव की स्थिति को भांप जाती है और उसे निष्कासित करने की कोशिश करती है।मांसपेशियों की गति में कमी आ जाती है तापमान कम हो जाता है तथा ब्लड प्रेशर कम हो जाता है।ऐसी स्थिति में शरीर काउंटर शॉक करती है।अलार्म अवस्था का चरण छोटा होता है।कुछ ही देर में व्यक्ति प्रतिरोध की दूसरी अवस्था में पहुंच जाता है।ऐसी अवस्था में शरीर में तनाव या स्ट्रेस  हार्मोन की बाढ़ आ जाती है।रक्तचाप,हृदय गति,तापमान और श्वास लेने में तेजी आ जाती है।यदि स्ट्रेस का सामना करने के भरपूर प्रयास असफल हो जाते हैं और तनाव बने रहते हैं तो व्यक्ति तीसरे चरण में जो थकावट का है उसमे पहुंच जाता है।इस चरण में शरीर की तोड़ फोड़ बढ़ जाती है व्यक्ति थकावट के कारण गिर सकता है और बीमारियों के बढ़ने की संभावना प्रबल हो जाती है।



       स्ट्रेस का सामना व्यक्ति अपने ढंग से करने का प्रयास करता है।अनेकों बार वह सफल भी हो जाता है।विशेष रूप से जब तनाव सामान्य होते हैं।ऐसी भी स्थिति निर्मित होती है  जब उससे निकलने का पर्याप्त प्रयास नहीं होता।मनोवैज्ञानिकों ने ऐसी स्थिति में स्ट्रेस से अनुकूलन हेतु नाना प्रकार के तरीकों को बताया है।और ऐसी युक्तियां निकाली हैं कि स्ट्रेस से अनुकूलन संभव है।इसके लिए मनोचिकित्सक भी कुछ युक्तियां बताते हैं लेकिन बड़े कार्यशालाओं में इस पर व्यवस्थित ज्ञान और कौशल बताया जाता है।मनोवैज्ञानिक स्ट्रेस के उन तमाम कारणों जो धुंधले और अस्पष्ट हैं उनमें से उस मूल कारण को खोजकर व्यक्ति को बताते हैं जिससे स्ट्रेस में जीने वाले को कारण स्पष्ट हो जाता है और वह कारण केंदित उपाय करने के लिए तैयार हो जाता है।
     जिन लोगों में स्ट्रेस घर कर गया है उन पर निगरानी जरूरी है।उन्हें अधिक से अधिक लोगो के बीच बैठाना चाहिए।सामाजिक संबंध व्यक्ति के जीवन में संवेगात्मक संतोष प्रदान करने वाले होते हैं।विभिन्न अनुसंधानों ने यह प्रमाणित भी किया है कि अधिक से अधिक सामाजिक संबंध व्यक्ति को स्ट्रेस से बाहर निकालने में काफी कारगर हैं।जो व्यक्ति इस विकृति से गुजर रहा होता है वह हर समय अपने में निराशा देखता है ऐसे वक्त में सामाजिक संबंध और सहयोग उन्हें निराशा से निकालने में सहायक होते हैं।दूसरों से यह आभास मिलना कि समाज द्वारा उसके प्रति अनुराग की बातें की जा रही हैं,लोग उसे महत्वपूर्ण मानते हैं,उसे प्रतिष्ठावान तथा मूल्यवान समझा जाता है,और वह संचार, संप्रेषण एवम परस्पर जिम्मेदारियों के जाल का एक महत्वपूर्ण सदस्य है।अत्यधिक जिम्मेदारियों का एक साथ आना,दुनियां के बवंडर से दूर रहने वाले व्यक्ति पर जब सामाजिक और वातावरणीय दबाव एक साथ आ जाते हैं तो वह मानसिक दबाव में आ जाता है।
        आज की दुनिया डिजिटल और आभासी चक्रव्यूह में उलझती जा रही है।पहले बहुत सी चीजें कागज पर लिख ली जाती थीं।जरूरत के समय वे कागज काम आते थे।अब सब कुछ मोबाइल या कंप्यूटर या लैपटॉप में संजोया जाता है।कहा जाता है कि डिजिटल युग है।पेपरलेस वर्क की बात की जाती है।आखिरकार मस्तिष्क को कोड तो याद ही करने पड़ते है।बहुत सारे कार्य के लिए मस्तिष्क पर हर क्षण दबाव बनाया जाता है।परिणाम होता है कि हमारा संज्ञानात्मक क्षेत्र स्वयं में शंकालु हो जाता है।जहां चिंतन,मनन,विश्लेषण,प्रतिमा निर्माण की बातों के लिए स्पेस होना चाहिए वहां हम अंकीय अनुमान में उलझे रहते हैं।वह उलझन व्यक्ति को तनाव की तरफ खींचता है जिससे वह स्ट्रेस का शिकार हो जाता है।आज की परवरिश भी पहले से बहुत भिन्न हो चुकी है।पहले बच्चे धूल मिट्टी बालू घास फूस से खेलते थे।गर्मी,ठंड ,बरसात में भीगते थे।स्कूल में गुरुजन उन्हें मारते भी थे ,डांटते थे।घर में सभी बड़े लोग उसे पुचकारने खिलाने में सहयोग करते थे।घर में दो चार बच्चे हो तो आपस में लड़ते झगड़ते भी थे।अब सब कुछ बदल गया।कहीं कुछ बचा ही नहीं।बर्दाश्त करने की क्षमता कहां से आयेगी।नतीजा थोड़े से स्ट्रेस में आने पर मम्मी पापा के नाम एक सूचना लिखकर सुसाइड करना उपाय समझते हैं।ऐसे परिवेश और संस्कारहीन माहौल में पले बढ़े बच्चो का भविष्य स्ट्रेसफुल नही तो और क्या होगा।
यदि अभिभावक नहीं संभले तो इन आम होती विकृतियों से रूबरू होने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा और उन्हें इसका भी प्रशिक्षण लेना होगा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर वे अपने आप को कैसे सम्हालें।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,चित्रकूट)

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