प्रकृति से निर्मम व्यवहार रोकें

कभी जिस मानसून के आने के लिये पूजा-अर्चनाएं की जाती थीं और उसके आने पर जन-जन में उत्सव जैसा भाव होता था, वह मानसून अब डराने लगा है। देश के कई राज्यों में बाढ़ के पानी में डूबे तमाम गांव-शहर इस त्रासदी की बानगी दिखा रहे हैं। कहीं बाढ़, कहीं भूस्खलन तो कहीं हिमस्खलन की घटनाएं लोगों को आतंकित कर रही हैं। लगातार होने वाली बादल फटने की घटनाएं चिंता बढ़ाने वाली हैं। हाल में अमरनाथ यात्रा के दौरान घटी त्रासदी ने बड़ी मानवीय क्षति की है। पहाड़ों के दरकने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं तो वहीं आकाशीय बिजली से मरने वालों का आंकड़ा भी लगातार बढ़ा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि प्रकृति का यह रौद्र रूप क्यों सामने आने लगा है? जीवनदायिनी मानसूनी बारिश क्यों जानलेवा साबित हो रही है। क्यों लोग प्रकृति के रौद्र रूप के सामने लाचार नजर आ रहे हैं। वहीं उत्तर भारत के कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहां भरपूर बारिश न होने से लोग परेशान हैं। कहीं न कहीं ये हालात हमें चेता रहे हैं कि प्रकृति विरोधी राजनीतिक व आर्थिक फैसलों ने उन कारकों को बढ़ावा दिया है जो ग्लोबल वार्मिंग के कारक बने। इसमें हमारी विलासिता की जीवन शैली भी शामिल है। हमने विकास के जिस मॉडल को चुना है उसमें प्रदूषण उगलते कारखाने, सड़कों पर वाहनों का सैलाब, वातानुकूलन की संस्कृति, जंगलों के कटान व पहाड़ों से निर्मम व्यवहार ने तापमान बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। उसके चलते हमारे मौसम के चक्र में ग्लोबल वार्मिंग का घातक असर नजर आ रहा है।दरअसल, कथित विकास के नाम पर हमने प्रकृति के साथ पिछली कुछ शताब्दियों में जो क्रूरता दिखाई है उसका खमियाजा इस पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या ने भी प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ाया है। जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक तरीके से दोहन बढ़ा है। जिसने जलवायु परिवर्तन के कारकों में वृद्धि ही की है। कुल मिलाकर जल, जंगल व जमीन के साथ क्रूरता बरती गई है। प्रकृति के सहचर बनने के बजाय हमने शासक बनने की कोशिश की है। दरअसल, कुदरत ने धरती के हर व्यक्ति के लिये दाना-पानी की व्यवस्था की है, लेकिन लिप्साओं, विलासिता और स्वच्छंद व्यवहार की अनुमति नहीं दी है। जब-जब इंसान इस लक्ष्मण रेखा को लांघता है प्रकृति उसका प्रतिकार करती है। मौसम का रौद्र उसी प्रतिकार की बानगी मात्र है। यह मनुष्य को चेतावनी भी है कि यह क्रूरता बंद न हुई तो उसकी आने वाली संतानों को इससे ज्यादा भयावह हालात से गुजरना होगा। निस्संदेह प्रकृति के इस तल्ख व्यवहार से हमारी खाद्य शृंखला भी खतरे में पड़ सकती है। हाल के दिनों में तेज गर्मी से गेहूं की फसल की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। इंसान के लिये यह चेतने का वक्त है।

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