हंगामे की भेंट चढ़ता संसद सत्र

संसद के मॉनसून सत्र की शुरुआत दोनों सदनों में कार्यवाही के लगातार स्थगन से हुई है। शुक्रवार को पांचवे दिन भी महंगाई और जीएसटी के विरोध में विपक्ष ने जोरदार हंगामा किया। सत्र के पहले पांच दिन विपक्ष के समवेत विरोध और हंगामे की बलि चढ़ चुके हैं। एक भी विधायी कार्य नहीं हो पाया है, एक भी विशेष चर्चा नहीं हुई है, प्रश्नकाल और शून्यकाल भी शोर में खो गए हैं। संसद की कार्यवाही जब भी हंगामों और स्थगन का शिकार हुई है, हमने उसका बुनियादी विरोध किया है। यह लोकतंत्र और संसद की गलत व्याख्या है कि गतिरोध भी लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा है। जब भाजपा विपक्ष में थी और विभिन्न घोटालों तथा विवादों के मद्देनजर उसने 15-15 दिन तक संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी थी, तब भी देश की प्रतिक्रिया नाखुश और विरोध में थी। संसद बाधित होती है, तो देश के औसत नागरिक को आघात लगता है, क्योंकि संसद का यह जनादेश नहीं है। लोकतंत्र और गणतंत्र के सबसे पवित्र, महान और गरिमापूर्ण मंदिर संसद का मकसद सिर्फ यही नहीं है कि सदन में हंगामेदार हरकतें की जाएं। अध्यक्ष या सभापति अथवा पीठासीन अधिकारी के आसन के करीब ‘वेल’ में जाकर नारेबाजी, बैनरबाजी की जाए और कार्यवाही को स्थगित करने को विवश किया जाए। संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास विरोध-प्रदर्शन आदि बदस्तूर जारी हैं, जबकि सर्कुलर के जरिए उन पर पाबंदी के दिशा-निर्देश दिए गए थे। क्या संसद भवन में कानूनहीनता और अराजकता की पूरी अनुमति है? बहरहाल अभी तक कार्यवाही स्थगित किए जाने से करीब 45 करोड़ रुपए पर पानी फिर चुका है। एक मिनट की कार्यवाही पर करीब 2.6 लाख रुपए खर्च होते हैं। चूंकि एक पूरे दिन की कार्यवाही औसतन 7 घंटे की होती है, लिहाजा दोनों सदन स्थगित करने पड़ें, तो औसतन 15 करोड़ रुपए स्वाहा हो जाते हैं। तीन दिन में यह राशि 45 करोड़ रुपए तक जाएगी। इसलिए लोकतंत्र के हित में है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष संसद की कार्यवाही को चलने दे। सदन जरूर चलना चाहिए, यह सरकार और विपक्ष दोनों को ही सुनिश्चित करना चाहिए। देश को यह जानने का भी अधिकार है कि जिस जीएसटी परिषद की बैठक में खाने-पीने और रोजमर्रा की चीजों पर जीएसटी थोपने का निर्णय लिया गया था, उसमें बंगाल, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब आदि आठ राज्यों के वित्त मंत्री भी मौजूद थे और वे विपक्ष की सरकारों के प्रतिनिधि थे। बेशक प्रस्ताव आम राय अथवा सर्वसम्मति से पारित किया गया, लेकिन सवाल है कि विपक्षी प्रतिनिधियों ने विरोध दर्ज क्यों नहीं कराया? असहमति की टिप्पणी कहां लिखाई गई है? अब विपक्ष इस मुद्दे पर कपड़े फाड़ रहा है। क्या यह देश की आंखों में धूल झोंकना नहीं है, क्योंकि सदन में या बाहर हमारे जन-प्रतिनिधि जनादेश के बिल्कुल विपरीत व्यवहार करते हैं? 

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